क्राइसिस ऑफ क़न्शस

हिंदुस्तान मे पढ़े-लखे लोग कभी-कभी एक बीमारी का शिकार हो जाते हैं। उसका नाम क्राइसिस ऑफ क़न्शस है। कुछ डॉक्टर उसी क्राइसिस ऑफ फेथ नाम की एक दूसरी बीमारी भी बीरीकी से ढूंढ निकालते हैं। यह बीमारी पढ़े-लिखे लोगों में आमतौर से उन्हीं को सताती है, जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं और जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं, बल्कि आहार-निद्रा-भय-मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं। (क्योंकि अकेली बुद्धि के सहारे जीना एक नामुमकिन बात है।) इस बीमारी में मरीज एक मानसिक तनाव और निराशा वाद के हल्ले में लंबे-लंबे वक्तव्य देता है, जोर-जोर से बहस करता है, बुद्धिजीवी होने के कारण अपेन को बीमार और बीमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है और अंत में इस बीमारी का अंत कॉफी-हाउस की बहसों में, शराब की बोतलों में, आवारा औरतों की बाहों में, सरकारी नौकरी में और कभी-कभी आत्महत्या में होता है। यह बात श्रीलाल शुक्ल ने अपनी रचना राग दरबारी में कही थी। आज नहीं बहुत पहले कही थी। पर आज भी उतना ही प्रासांगिक है, जितना यह पहले था। बल्कि यह पहले की अपेक्षा आज अधिक प्रासंगिक है। जैसे-जैसे हमारा समाज तरक्की करता जाएगा, इसकी प्रासंगिकता भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। आज जो हमारे बुद्धिजीवी वर्ग की जो हालत है, इससे तो मुझे कम से कम पक्का यकीन होता है। लगभग सभी बुद्धिजीवी अपने चेला-चपाटे बनाते हैं। कोई छोटा भी अवसर मिलता है तो सबसे पहले अपने करीबी को ही सत्ता की कुर्सी पर बिठाते हैं। भले ही उससे ज्यादा योग्य व्यक्ति क्यों न धूल फांकता रहे। कहानी यहीं नहीं रूकती....यह तो बस ट्रेलर है, पूरी फिल्म तो हम सभी को मालूम ही है...

2 comments:

  1. इस बात की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी जब तक मानव है.

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  2. इसलिये बुद्धिजीवी होने की अपेक्षा श्रमजीवी होना बेहतर है ।

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