शिवांगी शर्मा। मेरे पूरे क्लास में तीन लड़कियों में सबसे ख़ूबसूरत और मुमकिन तौर पर हम सभी में सबसे अक्लमंद भी। क्लास में मोनिटर होने के नाते काफी धाक थी मेरी। शायद इसलिए कि छोटी सी ग़लती पर भी मैं शिकायत कर देता था...जिसकी वजह थी मेरा थोड़ा नकचढ़ा, जिद्दी और घमंडी होना। शायद लोग तो कम से कम यही कहते थे। एक ऐसा लड़का जिसे अपनी सीमित ताकत को ज़रा-सा भी शेयर करना कतई पसंद नहीं। लेकिन साथ में अपने काम के प्रति लगनशील और ईमानदार भी। एक बचपना था लेकिन कहीं गुम हो गया था। यहां तक आपने पछले पोस्ट में पढ़ा, आगे.....
एकबार जब भैया ने दिल्ली से छोटा –सा कैलकुलेटर भेजा था तो बहुत ख़ुश हुआ था मैं। ख़ुद से ही वादा किया, मैं हमेशा दिल लगाकर पढ़ूंगा और एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर दिखाउंगा, मां-बाप का नाम रोशन करूंगा। लेकिन कहते हैं न, समय से पहले और भाग्य से ज़्यादा न कभी किसी को मिला है, न मिलेगा। सारा खेल मेहनत का ही नहीं होता, तक़दीर भी आदमी की ज़िंदगी में काफी अहम रोल प्ले करता है। यही खेल चल भी रहा था। पापा के साथ रहते-रहते भाई साहब ने उनके साथ ही काम करने वाले एक अफ्सर की बेटी से प्यार की पींगे पढ़ने लगे। पहले तो उस कैंपस में जितने भी ऑफ़ीसर्स रहते थे, सबका छोटा-मोटा काम कर देते थे, जिसकी वजह से सबके चहते थे। सभी उसे बहुत मानते। इसी बीच कब त्यागी जी की बेटी से उनकी आँखें चार हो गईं, पता ही नहीं चला। शायद वो भी मानते थे कि इश्क किया नहीं जाता, हो जाता है। धीरे-धीरे उनके घर आना-जाना थोड़ा अधिक हो गया। मतलब त्यागीजी की बीवी की हर बातों को मानने लगे। उनको भी लगा भगवान ने केवल दो बेटियां ही दी हैं तो क्या हुआ तुम मेरे बेटे जैसे..., नहीं...तुम्हीं मेरे बेटे ही हो। क्यों हो न राज। भाई साहब भी क्या बोलते, मोहब्बत जो किए बैठे थे। वैसे भी इस दुनिया में दो मां होती हैं, एक अपनी मां और दूसरी सासु मां(बाद में मां जी)। ख़ैर, बात काफी आगे बढने लगी। अपनी तरफ से तो शादी तक की बात पक्की कर ली थी। एक तो प्रेम-विवाह, तिस पर दूसरे जात की लड़की से। ज़माने के मुताबिक़ एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। इस दौरान, मम्मी और पापा को भी अब तक सारी बातें पता चल चुकी थीं। बस अंजाम तो तय था। भाई साहब को वापस घर भेजना। लेकिन होना तो कुछ और लिखा था। जिस दिन घर आना था, उसके एक दिन पहले नींद की दस-बीस और पता नहीं कौन-कौन सी गोलियां सब एक साथ खा ली। गनीमत था कि कॉलनी के एक शख़्स ने इनको बेहोशी की हालत में देख लिया और बीच बाज़ार से अस्पताल ले गया। बाद में मम्मी-पापा को इत्तला दी। थोड़ा- बहुत सही होने पर उन्हे वापस घर लाया गया। लेकिन हालत अभी भी नाजुक थी। न तो किसी को पहचानते थे, न ही दवा खाते बस ऐसी हरकतें कि शर्मिंदा होने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था। दो महीने हो गये थे। काफी जगह डॉक्टरों से दिखाया गया लेकिन नतीजा अभी भी कुछ नहीं निकला था। पानी और चाय में दवाई इस तरह से मिलाकर खिलाई जाती कि पता न चलें। .........उधर वह लड़की जिनसे मोहब्बत परवान चढ़ा था, किसी दूसरे साजन की सहेली हो गई। हालांकि यह बात इनको मालूम नहीं थी। आगे जारी..........
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