हररोज एक ही रास्ते से गुजरने पर बोरियत का एहसास होने लगता है। वजह शायद यह है कि हमें हररोज कोई बदलाव नजर नहीं आता है। हरदिन वही मंजर और वही नजारा...इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि हम बदलाव देखना नहीं चाहते या फिर बदलाव हमें नजर ही नहीं आता। ज्यादातर मामलों में होता यह है कि हमें बदलाव नजर ही नहीं आता। क्यों यह विचार का मसला हो सकता है...उसे देखने के लिए पैनी नजर और हमारे दंत कथाओं में जो प्रचलित है, उसके मुताबिक, गिद्ध दृष्टि की जरूरत पड़ती है। तभी हम छोटे से भी बदलाव को देख पाते हैं।
तारीख थी 4 फरवरी... मैं मेट्रों से ऑफिस जा रहा था. वैसे छुट्टी वाले दिन को छोड़कर हररोज ही जाता हूं...उस दिन किस्सा कुछ यूं हुआ... मेट्रों में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित रहती है, यह तो सभी को पता है। लेकिन उस दिन उन सीटों पर चार महिलाएं और चार पुरूष बैठे थे, मानों स्त्री-पुरूष की असमानता को दूर करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हों। तभी अगले स्टेशन पर एक महिला दाखिल हुईं, उसे देखकर एक भद्र दिखने वाले पुरूष अपने बगल वाले सहयोगी से पूछने लगे, यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है क्या? इस पर उन्होंने जवाब दिया नहीं, जिधर महिलाएं बैठी हैं वहीं तक आरक्षित है। दरअसल उन्हें भी गलतफहमी हो गई हो, शायद दिल्ली की ब्लू लाइन बसों की तरह वह भी धोखा खा गए हों...मुमकिन है, मेट्रों में थोड़े अंतराल के बाद सुनाई देने वाली आवाज भी उन्होंने न सुना हो, जिसमें कहा जाता है कि अपनी सीट महिलाओं, विक्लांगों और अपने से ज्यादा जरूरतमंदों के लिए खाली कर दें। खैर, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। गलती हर किसी से हो सकती है। वैसे भी वह अधेड़ महिला जिसे देखकर भद्र से दिख रहे महानुभव ने यह बातें पूछी थी, उनसे ज्यादा तंदरूस्त नजर आ रही थी।
खैर, अगले स्टेशन पर फिर एक 50-60 की उम्र के एक सज्जन मेट्रो में तशरीफ लाए। बदन पर व्हाइट कलर के कपड़े, शायद सफारी सूट था और पैरों में व्हाइट कलर के जूते। मानो रिन या टाइड के ब्रांड अंबेस्डर हों। हालांकि दोनों में सबसे सफेद कौन है, इसको लेकर रिन के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है...खैर हमारा मकसद किसी की तौहीन करना नहीं है, इसलिए मैं अपनी बात कहता हूं। हां, तो जनाब अंदर आए और जो सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी, वही जिसकी चर्चा मैंने पहले की। आठ लोग (संख्या कम या ज्यादा हो सकती है, पर स्त्री-पुरुष का अनुपात बराबर था) पहले ही बैठे थे। दो महिलाएं और एक नवयुवती। लड़की, वह ज्यादा खूबसूरत नहीं थी (हालांकि मेरा मानना है कि लड़कियां दो तरह की होती हैं, एक खूबसूरत और दूसरी अधिक खूबसूरत)। उसे देखकर लगता था कि वह परेशान है। अपनी कम खूबसूरती की वजह से उसे ग्लानि महसूस हो रही है। फिर भी लोगों को देखते हुए मुस्कुरा रही थी। सलवार सूट में खुद को परी से कम भी नहीं समझ रही थी। बस अपनी खूबसूरती और कम खूबसूरती के अंतर्द्वंद्व में उलझी हुई थी। हां, तो फिल्म अभिनेता राजकुमार की तरह सफेद कपड़े और जूते में सराबोर सज्जन आए उस लड़की के घुटने को साइड करते हुए बेहद कम जगह में किसी तरह एडजस्ट हो गए। बेचारी लड़की भी सिमट गई। राजकुमार टाइप वाले सज्जन बार-बार उस लड़की से पूछ भी रहे थे कि दिक्कत तो नहीं हो रही है, हालांकि लड़की और वह सज्जन अच्छी तरह जानते थे कि डेढ़ आदमी के लिए बैठने वाली जगह पर वे ढाई लोग एडजस्ट कर रहे थे।
फिर भी वह सज्जन बार-बार एक पिता की तरह (जरूरी नहीं कि पिता की उम्र का दिखने वाला शख्स पिता की तरह ही पेश आए, यह बात यहां भी लागू होती है) किसी तरह की दिक्कत न होने के बारे में उस लड़की से पूछते, लड़की भी किसी तरह की दिक्कत न हो होने की बात ठीक उसी तरह बार-बार दोहराती जैसे कोर्ट में सुनवाई के दौरान कोई गवाह अपनी बात पर डटा रहता है। जारी...
aage likhiye.....abhi tak ka to padh liye
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