पुरुष महिलाओं से और महिलाएं पुरुषों से हाथ नहीं मिला सकते।
नार्वे का रानी सोंजा पिछले साल इस्लामिक सांस्कृतिक केंद्र घूमने गईं। वहां के इमाम ने उनसे हाथ मिलाने से साफ मना कर दिया। हॉलैंड का भी मामला ठीक इसी तरह का है। इस देश में भी हाथ मिलाने या न मिलाने की घटना सुर्खियों में छाईं हैं। हालांकि हॉलैंड की सरकार ने अपने मुल्क के इमामों को कहा है कि आप हमारे मुल्क की परंपराओं और रीति रिवाजों का सम्मान करें। दरअसल यहां का मामला यह है कि डच सरकार की एक महिला मंत्री रिटा वर्डोंक मुसलमानों की एक संस्थान के समारोह में पहुंची। जब उन्होंने इमाम से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तो इमाम ने उनसे हाथ मिलाने से मना कर दिया। इस पर डच सरकार की इस महिला मंत्री ने इमाम साहब से बड़े अदब से कहा कि मुझे लगता है अभी हमें एक-दूसरे को समझने की जरूरत है। ठीक इसी तरह इमाम के साथ या आसपास खड़ी मुस्लिम महिलाओं ने भी मंत्री साहिबा के पुरुष अधिकारियों से हाथ मिलाने से मना कर दिया। इस तरह देखें तो बुर्का की तरह हाथ मिलाना या न मिलाना भी बड़ी तेजी से एक मुद्दा बनता जा रहा है।
पर सबसे दिलचस्प बात यह है कि स्वीडन कोर्ट के फैसले से पहले इस तरह का मसला कभी सुना नहीं गया। इसके बाद स्वीडन की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के महिला विंग की प्रमुख नलिन पेगुल (वह खुद कुर्द जाति की हैं) ने इस पूरे मामले की मुखालफत की। उन्होंने कुरआन का हवाला देते हुए जोर शोर से कहा कि इस्लाम कभी महिलाओं को यह नहीं कहता कि आप पुरुषो से हाथ न मिलाएं या पुरुष महिलाओं से हाथ न मिलाएं। उन्होंने इसके लिए कई मुस्लिम मुल्कों का उदाहरण भी दिया। कहा कि मुस्लिम तहजीब में कुछ देशों में मुस्लिम महिलाएं पुरुषों से हाथ मिलाती हैं तो कुछ मुल्कों में वह ऐसा नहीं करती हैं। यह एक पूरी तरह सामाजिक और सांसकृतिक मसला है।
हम सांस्कृतिक मामलो को सुलझाने के लिए मजहब का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। हाथ मिलाना या न मिलाना किसी समाज की सामाजिक संबंधों या सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान का मसला है। पश्चिमी मुल्को में महिलाओं से हाथ न मिलाना उनका अपमान करना माना जाता है। यहां तक कि यदि आप उनसे मजहब के नाम पर हाथ मिलाने से मना करते हैं तो भी। वह भी खासकर ऐसे मामलों में जब किसी को बधाई या शुभकाममाएं दे रहे हों। इस तरह देखें तो स्वीडन की अदालत ने अपना यह फैसला देकर, कि कोई भी धर्म के नाम पर हाथ मिलाने न मिलाने को आजाद है, एक गलत और खतरनाक फैसला दिया है। इस तरह धर्म और संस्कृति या मजहब और तहजीब में घालमेल से कई और विवाद पैदा होंगे।
दरअसल इन सारे मामलों की हकीकत यह है कि बुर्का, हाथ मिलाना या न मिलाना, अलग मदरसा और इस तरह के कई मुद्दे चरमपंथी राजनेताओं के चोंचले होते हैं। ये चरमपंथी, अतिवादी और अलगाववादी ताकतें बुर्का पर पाबंदी को लेकर या जब इनके हित की बात होती है तो मानवाधिकार का रोना रोने लगते हैं, जब मामला पुरुष और महिलाओं के हाथ मिलाने का आता है तो मजहब का सहारा लेने लगते हैं। पर जब सही मायनो में बात मजहब या धर्म की आती है तो ये मजहबी लोग किसी की परवाह नहीं करते हैं।
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