सन्याल और मजूमदार ने 1969 में सीपाआई-एमएल पार्टी बनाई। इन दोनों ने सशस्त्र संघर्ष के जरिए भारतीय क्रांति का लक्ष्य तय किया। इनका मकसद पूरे देश में मुक्त क्षेत्र की स्थापना करना था, जो अंतत: एक इकाई में मर्ज हो जाता और यह पूरी तरह नक्सली नियंत्रण में होता। सन्याल के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने खुलेआम चीन से मदद की मांग की थी और इसके लिए 1967 में कथित तौर पर काठमांडू के रास्ते चीन का दौरा भी किया था। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि चीन ने नैतिक, आर्थिक या किसी दूसरे तरीके से बंगाल में नक्सली आंदोलन के सहयोग के लिए उनकी मदद की थी।
नक्सली आंदोलन के दौरान सन्याल भूमिगत हो गए, लेकिन इसके बावजूद उन्हें अगस्त 1970 में गिरफ्तार किया गया। और, उन्हें पार्वतीपुरम केस के मामले में विशाखपत्तनम जेल में सात साल की सजा काटनी पड़ी। गौरतलब है कि इस मामले को इतिहास का सबसे बड़ी साजिश वाला मामला माना जाता है, जिसमें इन पर आरोप था कि इन्होंने आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में जमींदारों के खिलाफ संगठित सशस्त्र आंदोलन की साजिश रची। इसी दरम्यान जुलाई 1972 में सन्याल के साथी मजूमदार को उनके गुप्त ठिकाने से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के 15 दिनों बाद ही उनकी मौत हिरासत में हो गई। लेकिन तब तक वामपंथी पार्टी बंगाल की सत्ता में आ चुकी थी। 1977 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने सन्याल की रिहाई में अग्रदूत की भूमिका निभाई।
अपनी रिहाई के बाद सन्याल ने हिंसा का रास्ता छोड़ एक कम्यूनिस्ट संगठन की नींव रखी। आगे चलकर संन्याल सीपीआई-एमएल के महासचिव बने। लेकिन एकबार फिर 18 जनवरी 2006 को इनको गिरफ्तार किया गया। इस बार ये बंगाल में चाय बगान के लोगों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। फिर सिंगूर और नंदीग्राम में सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण के तौर तरीकों के खिलाफ भी अपना स्वर मुखर किया। उन्होंने बंगाल के सीपीआई-एम सरकार को बात को लेकर जमकर लताड़ लगाई कि वह अब पूंजीवादियों के हाथों की कठपुतली बन चुकी है।
यह भी बेहद दिलचस्प है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन की अगुआई करने वाले सन्याल ने अक्सर माओवादी आंदोलन की आलोचना की। वह भी तब जबकि वह इसके संस्थापकों में एक थे। लेकिन अब जो नक्सलवाद की हालत और विचारधारा हो गई थी उसकी वजह से अक्सर वह इसकी मुखालफत करते। वह इस बात से बेहद खफा थे कि ये माओवादी गरीबो और गरीब किसानों एवं आदिवासियों के अपना निशाना बनाते हैं।
नक्सली आंदोलन के दौरान सन्याल भूमिगत हो गए, लेकिन इसके बावजूद उन्हें अगस्त 1970 में गिरफ्तार किया गया। और, उन्हें पार्वतीपुरम केस के मामले में विशाखपत्तनम जेल में सात साल की सजा काटनी पड़ी। गौरतलब है कि इस मामले को इतिहास का सबसे बड़ी साजिश वाला मामला माना जाता है, जिसमें इन पर आरोप था कि इन्होंने आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में जमींदारों के खिलाफ संगठित सशस्त्र आंदोलन की साजिश रची। इसी दरम्यान जुलाई 1972 में सन्याल के साथी मजूमदार को उनके गुप्त ठिकाने से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के 15 दिनों बाद ही उनकी मौत हिरासत में हो गई। लेकिन तब तक वामपंथी पार्टी बंगाल की सत्ता में आ चुकी थी। 1977 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने सन्याल की रिहाई में अग्रदूत की भूमिका निभाई।
अपनी रिहाई के बाद सन्याल ने हिंसा का रास्ता छोड़ एक कम्यूनिस्ट संगठन की नींव रखी। आगे चलकर संन्याल सीपीआई-एमएल के महासचिव बने। लेकिन एकबार फिर 18 जनवरी 2006 को इनको गिरफ्तार किया गया। इस बार ये बंगाल में चाय बगान के लोगों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। फिर सिंगूर और नंदीग्राम में सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण के तौर तरीकों के खिलाफ भी अपना स्वर मुखर किया। उन्होंने बंगाल के सीपीआई-एम सरकार को बात को लेकर जमकर लताड़ लगाई कि वह अब पूंजीवादियों के हाथों की कठपुतली बन चुकी है।
यह भी बेहद दिलचस्प है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन की अगुआई करने वाले सन्याल ने अक्सर माओवादी आंदोलन की आलोचना की। वह भी तब जबकि वह इसके संस्थापकों में एक थे। लेकिन अब जो नक्सलवाद की हालत और विचारधारा हो गई थी उसकी वजह से अक्सर वह इसकी मुखालफत करते। वह इस बात से बेहद खफा थे कि ये माओवादी गरीबो और गरीब किसानों एवं आदिवासियों के अपना निशाना बनाते हैं।
सच कहा भाई...यह सचमुच किसी सपने के मर जाने जैसा ही है...
ReplyDeleteनहीं पता कि नक्सलवाद में हथियार कितना जायज है या नाजायज...और किस वजह से सान्याल ने हथियार की मुखालफत शुरू की, लेकिन इतना ज़रूर है कि समाज को बदलने के लिए उठाया गया कदम दिगभ3मित हो चुका है...
आलोक साहिल
यह इतिहास का एक महत्वपूर्ण पन्ना है ।
ReplyDeleteसान्याल का जीवन शोध चाहता है। वे निश्चय ही एक ईमानदार जमीनी नेता थे। उन की शोधपरक जीवनी के बिना भारत का इतिहास अधूरा रहेगा।
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