वैशाली : नई छवि गढ़ने को संघर्षरत राज्य का ज़िला

वैशाली की पहचान क्या है? यदि सीधी बात कहूं तो आज अपनी खुद की पहचान और नई छवि गढ़ने को संघर्षरत राज्य बिहार का एक ज़िला है। पर क्या किसी जगह या स्थान की पहचान इन्ही वजहों से होती है? अगर होती भी है तो यह एक महज छोटा और अधूरा पहलू भर ही है। मुझे ज्यादा नहीं पता जिस ज़िले में मैं रहता हूं उसकी अहमियत क्या है? पर हां इतना जरूर पता है कि वैशाली का नाम जब पहली बार सामने आता है तो इसकी कई छवि आंखों के सामने गुजरने लगती है। यदि वैशाली को जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर से याद रखने की कोशिश करें तो बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध पीछे छूट जाते हैं। जब बात वैशाली की हो और आम्रपाली का जिक्र न हो तो इसकी पहचान ही अधूरी समझिए। यानी इस तरह देखें तो वैशाली की महज एक नहीं कई पहचान है। राजा विशाल जिनके नाम पर इसका नाम वैशाली पड़ा। या फिर इसे आप गणतंत्र की जननी कह लीजिए। आप हर तरह से वैशाली के इतिहास और इसकी पहचान को याद रखने, जानने और समझने के लिए स्वतंत्र हैं। पर यदि कोई चाहे कि हम इसे किसी एक पहचान में बांध कर सीमित करें तो यह शायद नामुमकिन है। शायद इसलिए कि इन सभी में से किसी एक पहचान के दायरे में वैशाली को समेटना इतिहास के साथ नाइंसाफी तो होगी ही, यह गैर बराबरी या अन्याय होगा उन शखसियतों और धरोहरों के साथ जिनका जीवन वैशाली के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है।
चलिए तो एक नजर वैशाली पर डालते हैं। वैशाली प्राचीन लिच्छवी की राजधानी और दुनिया का सबसे पहला गणतंत्र है। यह बात छठी शताब्दी ईसापूर्व की है। 599 ईसापूर्व भगवान महावीर का यहां जन्म हुआ। यह वैशाली की खुशनसीबी ही थी कि अपनी मृत्यु यानी महापरिनिर्वाण से पहले अपना आखिरी उपदेश महात्मा बुद्ध ने यहीं दिया। यानी वैशाली दो धर्मों का इतिहास और उनके इतिहास पुरुष को अपने समेटे हुए है। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन वैशाली में सात हजार सात सौ सात खूबसूरत ग्राउंड और इतने ही कमल के तालाब थे। वैशाली का नाम महाभारत युग के राजा विशाल के नाम पड़ा था। हालांकि कई लोग यह भी कहते हैं कि चूंकि यह काफी विशाल था यानी राज्य काफी दूर तक फैला हुआ था, इसीलिए विशाल क्षेत्रफल होने के नाते इसका नाम वैशाली पड़ा। वैशाली के बार में कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध गया के वट वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पहली बार वैशाली ही आए। मगर इससे भी दिलचस्प बात तो यह है कि उन्हें निमंत्रण मिला था वैशाली के राजा की ओर से, लेकिन उन्होंने राजा के निमंत्रण को ठुकराकर सबसे पहले वैशाली की नगरवधू आम्रपाली से मुलाकात की।

जमाना मिसफिट का है

आज परसाई साहब को पढ़ रहा था। उनकी रचनाओं मे एक तरह का जादू है। जो बात उन्होंने अपनी व्यंग्य रचना के जरिए आज से वर्षों पहले कही थी। वह आज भी सटीक और मारक है। उदाहरण के तौर यदि मैं बात करूं अपने लोकतंत्र की, जहां संसद में हर साल अपराधियों और गुंडों की टोली बढ़ती जा रही है। तो परसाई जी ने इस पर क्या खूब कहा था कि यह शायद हमारे ही जनतंत्र में होता है कि गुंडे भी चुनाव जीतकर शासन करने पहुंच जाते हैं। जुए के घर चलाने वाले, शराबखोरी करने वाले, गुंडागिरी करने वाले बड़े-बड़े निर्वाचित पदों पर हमारे ही मुल्क में विराजमान हैं।
हाल में जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो उस दौरान यह भी शोर उठा था कि हम अपनी तुलना अमेरिका से तो करते हैं, लेकिन हन उनकी अच्छाइयों को क्यों नहीं अपनाते? मसलन उनके नेता येल यूनिवर्सिटी से पढ़कर चुनाव लड़ते हैं तो हमारे नेता जेल से चुनाव लड़ते हैं। अभी इस साल बिहार में चुनाव होना है, देखते हैं कितने ऐसे नेता अपनी किस्मत बंद कोठरी से आजमाते हैं और आज जो जेल के हवलदार से सर-सर कहकर बात करते हैं कल जेलर को हुक्म देने लगेंगे।
एकबार फिर परसाई साहब की शब्दों में कहूं तो यह जमाना मिसफिट्स का हो गया है भाई। जिसे जुआखाना चलाना चाहिए वह मंत्री है, जिसे क्रिमिनल होना चाहिए वह पुलिस अफसर है, जिसे दलाला होना चाहिए वह प्रोफेसर है। जिसे जेल में होना चाहिए वह मजिस्ट्रेट है। यानी जिसे जहां होना चाहिए वह वहां नहीं है।

जीना सिर्फ मेरा मकसद नहीं

जिंदगी में बहुत ऐसे पल आते हैं, जब हम उदास होते हैं, बेचैन होते हैं। तब लगता है, आखिर यह जीवन क्या है? कभी समझ नहीं पाया। हम दुखी होते हैं, अमूमन हमें इसका कारण पता होता है। लेकिन वास्तिवक वजह वही हो जो हम समझते हैं, यह जरूरी नहीं है। कई बार हमें खुद पर ही यकीन नहीं होता कि हम वही हैं, जो दूसरों को अपने बारे में बताते हैं। ऐसे में लगता है...
जिंदगी जैसे चलती है, चलने दो
जीना है जीओ
बदलाव की उम्मीद मत रखो
वरना खुद बदल दिए जाओग।
हालांकि इन सबसे अलग जब दुनियावी बातें जेहन में आती है तो कुछ इस तरह उम्मीदें हिलोरें मारने लगती है...
चाहत हमेशा होती है कुछ करने की,
पर कुछ भी करता नहीं,
ललक सबसे आगे बढ़ने की,
पर मैं दौड़ता नहीं,
ये कौन बताए जमाने को
कि जीना सिर्फ मेरा मकसद नहीं।।

इस्लाम में हाथ मिलाना गुनाह है?

पुरुष महिलाओं से और महिलाएं पुरुषों से हाथ नहीं मिला सकते।
नार्वे का रानी सोंजा पिछले साल इस्लामिक सांस्कृतिक केंद्र घूमने गईं। वहां के इमाम ने उनसे हाथ मिलाने से साफ मना कर दिया। हॉलैंड का भी मामला ठीक इसी तरह का है। इस देश में भी हाथ मिलाने या न मिलाने की घटना सुर्खियों में छाईं हैं। हालांकि हॉलैंड की सरकार ने अपने मुल्क के इमामों को कहा है कि आप हमारे मुल्क की परंपराओं और रीति रिवाजों का सम्मान करें। दरअसल यहां का मामला यह है कि डच सरकार की एक महिला मंत्री रिटा वर्डोंक मुसलमानों की एक संस्थान के समारोह में पहुंची। जब उन्होंने इमाम से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तो इमाम ने उनसे हाथ मिलाने से मना कर दिया। इस पर डच सरकार की इस महिला मंत्री ने इमाम साहब से बड़े अदब से कहा कि मुझे लगता है अभी हमें एक-दूसरे को समझने की जरूरत है। ठीक इसी तरह इमाम के साथ या आसपास खड़ी मुस्लिम महिलाओं ने भी मंत्री साहिबा के पुरुष अधिकारियों से हाथ मिलाने से मना कर दिया। इस तरह देखें तो बुर्का की तरह हाथ मिलाना या न मिलाना भी बड़ी तेजी से एक मुद्दा बनता जा रहा है।
पर सबसे दिलचस्प बात यह है कि स्वीडन कोर्ट के फैसले से पहले इस तरह का मसला कभी सुना नहीं गया। इसके बाद स्वीडन की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के महिला विंग की प्रमुख नलिन पेगुल (वह खुद कुर्द जाति की हैं) ने इस पूरे मामले की मुखालफत की। उन्होंने कुरआन का हवाला देते हुए जोर शोर से कहा कि इस्लाम कभी महिलाओं को यह नहीं कहता कि आप पुरुषो से हाथ न मिलाएं या पुरुष महिलाओं से हाथ न मिलाएं। उन्होंने इसके लिए कई मुस्लिम मुल्कों का उदाहरण भी दिया। कहा कि मुस्लिम तहजीब में कुछ देशों में मुस्लिम महिलाएं पुरुषों से हाथ मिलाती हैं तो कुछ मुल्कों में वह ऐसा नहीं करती हैं। यह एक पूरी तरह सामाजिक और सांसकृतिक मसला है।
हम सांस्कृतिक मामलो को सुलझाने के लिए मजहब का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। हाथ मिलाना या न मिलाना किसी समाज की सामाजिक संबंधों या सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान का मसला है। पश्चिमी मुल्को में महिलाओं से हाथ न मिलाना उनका अपमान करना माना जाता है। यहां तक कि यदि आप उनसे मजहब के नाम पर हाथ मिलाने से मना करते हैं तो भी। वह भी खासकर ऐसे मामलों में जब किसी को बधाई या शुभकाममाएं दे रहे हों। इस तरह देखें तो स्वीडन की अदालत ने अपना यह फैसला देकर, कि कोई भी धर्म के नाम पर हाथ मिलाने न मिलाने को आजाद है, एक गलत और खतरनाक फैसला दिया है। इस तरह धर्म और संस्कृति या मजहब और तहजीब में घालमेल से कई और विवाद पैदा होंगे।
दरअसल इन सारे मामलों की हकीकत यह है कि बुर्का, हाथ मिलाना या न मिलाना, अलग मदरसा और इस तरह के कई मुद्दे चरमपंथी राजनेताओं के चोंचले होते हैं। ये चरमपंथी, अतिवादी और अलगाववादी ताकतें बुर्का पर पाबंदी को लेकर या जब इनके हित की बात होती है तो मानवाधिकार का रोना रोने लगते हैं, जब मामला पुरुष और महिलाओं के हाथ मिलाने का आता है तो मजहब का सहारा लेने लगते हैं। पर जब सही मायनो में बात मजहब या धर्म की आती है तो ये मजहबी लोग किसी की परवाह नहीं करते हैं।

इस्लाम बनाम विवादों की कहानी

कोई भी धर्म विवादों से अछूता नहीं है। पर बुर्का के बाद अब एक नया विवाद खड़ा हो गया है। हाथ मिलाने का विवाद। जी हां। यदि आप मुसलमानों से हाथ मिलाते हैं तो आपको जुर्माना देना होगा। इसकी वजह यह है कि इस्लाम में इसे हराम माना गया है। पर जरा ठहरिए। आप मुझे गलत समझे इससे पहले मैं सारा माजरा ही साफ किए देता हूं। कहानी भारत की नहीं है। होता तो अब तक शायद बहुत बड़ा बवाल खड़ा हो जाता। हमारी हिंदू सेना (आरएसएस, विश्वहिंदू परिषद और राम सेना) या कई राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने तरीके से इनका मरम्मत करने में जुट जातीं। मामला स्वीडन का है। यहां की एक सरकारी संस्था ने 60,000 स्वीडीश क्रोनर (स्वीडीश मुद्रा) एक मुसलमान को जुर्माने के तौर पर देने का हुक्म दिया है। साल 2006 में एक शख्स ने दक्षिणी स्वीडन की एक कंपनी में काम करने के लिए इंटरव्यू दिया। अपने इंटरव्यू के दौरान उसने कंपनी की महिला सीईओ से हाथ मिलाने से इंकार कर दिया। इंटरव्यू के बाद उस मुस्लिम युवक के आवेदन को फाड़ दिया गया यानी उसे नौकरी नहीं मिली। यहां हम आपको बता दें कि एक सच्चा और सक्रिय मुसलमान होने के नाते उस शख्स ने महिला सीईओ से हाथ मिलाने से मना कर दिया था। इसकी कोई दूसरी वजह नहीं थी। हालांकि कंपनी की महिला सीईओ के मुताबिक, उस मुस्लिम युवक के आवेदन को उसके बधाई देने के तरीके की वजह से रद्द नहीं किया गया। पर हां, जिस तरह से उसने मेरे साथ व्यवहार किया, उससे मुझे बेइज्जती का एहसास हुआ। मुझे अपमान का एहसास हुआ। उस लड़के ने मेरे अलावा सभी से हाथ मिलाया। जब उस लड़के का जॉब में सेलेक्शन नहीं हुआ तो उसने स्वीडन के पब्लिक एंप्लॉयमेंट सेंटर में मामले के खिलाफ अपील की। हालांकि वहां उस मुस्लिम लड़के की यीचिका को खारिज कर दिया गया। फिर वह लड़का स्वीडन के भेदभाव की सुवाई करने वाले लोकपाल अदालत में मामले को लेकर गया। कोर्ट ने लड़के के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि किसी भी मुसलमान को धार्मिक वजहों के चलते एक महिला से हाथ न मिलाने का पूरा अधिकार है। इसलिए इस आधार पर उसकी नौकरी रद्द नहीं की जा सकती है।
इसी तरह का एक किस्सा और है। उसे अगले पोस्ट में आपके सामने लेकर हाजिर होऊंगा।

इनको मिले भ्रष्टाचार का भारत रत्न

शहर में कॉफी हाउस, सेमीनार, लाइब्रेरी और विधानसभा या संसद की जो उपयोगता है, वहीं देहात में सड़क के किनारे बनी हुई पुलिया की है। यानी लोग यहीं बैठते हैं और गप लड़ाते हैं। पर यदि शहरों की बात करें तो यहां बुद्धिजीवियों की तादाद बहुत ज्यादा है। ये एक विचित्र प्रजाति के जीव होते हैं। इनका काम पानी पी-पीकर सभा, गोष्ठी या फिर जहां मौका मिल जाए वहीं गरीबों को आदर्श का ज्ञान देने लगते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों में बैठकर गरीबी दूर करने की बात करते हैं। अमेरका और ब्रिटेन की नीतियों पर चलने के लिए भारत और उसकी सरकार को खुलेआम मुंहफट होकर गालियों की पुष्पमाला भेंट करते हैं। पर हालत यह है कि हैं तो बुद्धिजीवी, विलायत या अमेरका का चक्कर लगाने के लिए यह साबित करना पड़ जाए कि हम बाप की औलाद नहीं हैं, तो साबित भी कर देंगे। चौराहे पर इनको दस जूते मार लो, पर एकबार अमेरिका भेज दो। ये हैं बुद्धिजीवी। जब बात शहरों की चली है और आजकल शीला सरकार दिल्ली को कॉमनवेल्थ खेल के नाम पर दिल्ली को शंघाई और पेरिस बनाना चाहती है तो जरा इस पर भी ध्यान दे देते हैं इसका असर किस तरह पड़ेगा। आजादी मिलने के बाद यदि भारत के किसी एक वर्ग ने तरक्की की है तो वह है साइकिल-रिक्शाचालकों का वर्ग। जिस तेजी से यह वर्ग पनपा है, उससे यही साबित होता है कि हमारी आर्थिक नीतियां बहुत बढ़ियां हैं और यहां के घोड़े बहुत घटिया हैं। पहले घोड़ा गाड़ी का जो इस्तेमाल होता था। खैर इससे यह भी साबित होता है कि समाजवादी समाज की स्थापना के सिलसिले में हमने पहले तो घोड़े और मनुष्य के बीच भेदभाव को मिटाया है और अब मनुष्य एवं मनुष्य के बीच भेदभाव को मिटाने की सोचेंगे। क्योंकि पहले जिनके पास घोड़े थे वह घोड़ा घास खाकर भले ही जिंदा रह लेता हो, घोड़ागाड़ी वाला भी इसी तरकीब से जी लेता होगा, यह मानना कठिन है। एक बात यह है कि खाद्य विज्ञान का सिद्धांत कहता है कि आदमी की अक्ल तो घास खाकर जिंदा रह लेती है, आदमी खुद इस तरह नहीं रह सकता।
एक और बात तो आधुनिक युग के हिसाब से सबसे बड़ा क्रांतिकारी बदलाव है। वह यह कि लोग अब किसी भी तरकीब से अमीर बन जाने से ही सम्मानपूर्ण बन जाते हैं। इसीलिए देश की किसी भी संस्था, मंत्रालय, विभाग या आम आदमी के टैक्स का पैसा खा लेने भर से आदमी का सम्मान नष्ट नहीं होता है। मधु कोड़ा पांच हजार से भी ज्यादा करोड़ रुपए खाकर अपनी बीवी को चुनाव जीता ही लिया। लालू चारा खाकर रेल मंत्री बने ही। मायावती, जयललिता, मुलायम सिंह और सांसद जिनकी आमदनी आर्थिक मंदी में भी १० करोड़ के हिसाब से बढ़ी। वह भी सम्माननीय हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें सम्माननीय मानते हुए इन मामलो में जांच के आदेश नहीं देने का फैसला लिया है। काम के नाम पर ये नेता हर काम चुनाव के पहले ही कराना पसंद करते हैं। शायद चुनाव कानून में लिखा है या पता नहीं क्यों सभी बड़े या छोटे नेता चुनाव के कुछ महीना पहले अपने-अपने चुनाव-क्षेत्र का सुधार कराते हैं। कोई सड़कें बिछवाता है, कोई पुल बनवाता है तो कोई गरीबों को कपड़े और कंबल दान में देता है।
सहयोग-राग दरबारी

सन्याल के सपनों का मर जाना

नक्सली आंदोलन के जनक का चले जाना सरकार और प्रशासन के लिए जरूर खुशियों की सौगात लेकर आया होगा। लेकिन यह सच है कि सन्याल की मौत यह जता दिया कि किस तरह एक सपने का अंत होता है। उन्होंने भी आखिर में हिंसा का रास्ता छोड़कर माओवादियों की हिंसा की मुखालफत की थी। पर सबकुछ अधूरा रह गया।
सन्याल और मजूमदार ने 1969 में सीपाआई-एमएल पार्टी बनाई। इन दोनों ने सशस्त्र संघर्ष के जरिए भारतीय क्रांति का लक्ष्य तय किया। इनका मकसद पूरे देश में मुक्त क्षेत्र की स्थापना करना था, जो अंतत: एक इकाई में मर्ज हो जाता और यह पूरी तरह नक्सली नियंत्रण में होता। सन्याल के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने खुलेआम चीन से मदद की मांग की थी और इसके लिए 1967 में कथित तौर पर काठमांडू के रास्ते चीन का दौरा भी किया था। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि चीन ने नैतिक, आर्थिक या किसी दूसरे तरीके से बंगाल में नक्सली आंदोलन के सहयोग के लिए उनकी मदद की थी।
नक्सली आंदोलन के दौरान सन्याल भूमिगत हो गए, लेकिन इसके बावजूद उन्हें अगस्त 1970 में गिरफ्तार किया गया। और, उन्हें पार्वतीपुरम केस के मामले में विशाखपत्तनम जेल में सात साल की सजा काटनी पड़ी। गौरतलब है कि इस मामले को इतिहास का सबसे बड़ी साजिश वाला मामला माना जाता है, जिसमें इन पर आरोप था कि इन्होंने आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में जमींदारों के खिलाफ संगठित सशस्त्र आंदोलन की साजिश रची। इसी दरम्यान जुलाई 1972 में सन्याल के साथी मजूमदार को उनके गुप्त ठिकाने से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी के 15 दिनों बाद ही उनकी मौत हिरासत में हो गई। लेकिन तब तक वामपंथी पार्टी बंगाल की सत्ता में आ चुकी थी। 1977 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने सन्याल की रिहाई में अग्रदूत की भूमिका निभाई।
अपनी रिहाई के बाद सन्याल ने हिंसा का रास्ता छोड़ एक कम्यूनिस्ट संगठन की नींव रखी। आगे चलकर संन्याल सीपीआई-एमएल के महासचिव बने। लेकिन एकबार फिर 18 जनवरी 2006 को इनको गिरफ्तार किया गया। इस बार ये बंगाल में चाय बगान के लोगों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। फिर सिंगूर और नंदीग्राम में सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण के तौर तरीकों के खिलाफ भी अपना स्वर मुखर किया। उन्होंने बंगाल के सीपीआई-एम सरकार को बात को लेकर जमकर लताड़ लगाई कि वह अब पूंजीवादियों के हाथों की कठपुतली बन चुकी है।
यह भी बेहद दिलचस्प है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन की अगुआई करने वाले सन्याल ने अक्सर माओवादी आंदोलन की आलोचना की। वह भी तब जबकि वह इसके संस्थापकों में एक थे। लेकिन अब जो नक्सलवाद की हालत और विचारधारा हो गई थी उसकी वजह से अक्सर वह इसकी मुखालफत करते। वह इस बात से बेहद खफा थे कि ये माओवादी गरीबो और गरीब किसानों एवं आदिवासियों के अपना निशाना बनाते हैं।

कानू संन्याल और नक्सलवाद

कानू संन्याल ने मंगलवार को आत्म हत्या कर ली। इस बात पर यकीन नहीं हो रहा है। भारत में नक्सल मूवमेंट की नींव रखने वाला शख्स भला आत्महत्या कर ले, किसी को भला यकीन कैसे हो सकता है। संन्याल एक ऐसे क्रांति के जनक थे, जिसन भारत में कम्यूनिस्ट राजनीति की दशा और दिशा बदल कर रख दी। जब हम कानू संन्याल की बात करते हैं तो हमारे जेहन में सबसे पहला सवाल यही उठता है कि कौन थे कानू संन्याल? एक नजर यदि संन्याल 81 साल के जीवन इतिहास पर डालें तो सबसे पहली बात जो उनके बारे में कही जा सकती है, वह यह कि कानू संन्याल नक्सली आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में एक थे। कुछ यूं जिंदगी शुरू हुई थी संन्याल की।
साल 1932 में दार्जलिंग जिले के कुर्सियांग में एक शख्स का जन्म हुआ। यह आगे चलकर राजस्व विभाग में एक सामान्य कलर्क बना। लेकिन दरम्यान पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधान चंद्र रॉय को काला झंडा दिखाने के चलते इसे गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल इस शख्स ने भारत सरकार द्वारा कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का विरोध किय था। गिरफ्तारी के बाद संन्याल को जलपाईगुड़ी जेल में रखा गया। यहां इनकी मुलाकात सीपीआई के जिला सचिव सदस्य और भविष्य के कामरेड-इन-आर्म्स चारू मजूमदार से हुई। संन्याल जेल में मजूमदार की विचारधारा से बेहद प्रभावित हुए और छूटते ही उन्होंने सीपीआई की सदस्यता ले ली। आगे चलकर भारत-चीन के बीच हुए जंग को लेकर विवाद के बाद संन्याल सीपीआई-एम के साथ हो लिए। फिर संन्याल ने अपने वामपंथी क्रांतिकारी साथी चारू मजूमदार के साथ मिलकर 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन की बुनियाद रखी। हालांकि इन दोनों के सशस्त्र आंदोलन को प्रशासन ने बड़ी बेरहमी से महज चंद महीनो में ही कुचल दिया, लेकिन इसके बावजूद नक्सलवाद एक विचारधारा के तौर खुद को जिंदा रखा। आगे चलकर इस विचारधारा ने माओवादी विद्रोह की शक्ल अख्तियार कर ली, जिसे आज भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। इसकी वजह नक्सिलयों की ओर से की जाने वाली हिंसा बताई जाती है। पर राज्य की ओर से जो हिंसा होती है, उसका क्या? राज्य की हिंसा में जब हजारों बेगुनाह मौत की आगोश में चले जाते हैं उनका क्या? कही इसका मतलब यह तो नहीं राज्य को कानूनी तौर पर हत्या का अधिकार मिल गया है?
खैर, इस दौरान बहुत जल्द संन्याल अपने जुझारू और फायरब्रांड राजनीति के लिए पहचाने जाने लगे। फिर 1967 में उन्होंने उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में सशस्त्र किसान आंदोलन नेतृत्व किया। शुरु में यह सशस्त्र वामपंथी संघर्ष सरकार के विरुद्ध थी, लेकिन धीरे-धीरे इसकी लपटें आंध्रप्रदेश और उड़ीसा जैसे दूसरे राज्यों में भी फैलने लगी। दरअसल उस दौरान मई 1967 में दार्जलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव में जमींदारों के अत्याचार और दमन के खिलाफ सशस्त्र किसानों का विद्रोह फूट पड़ा था। इस बगावत की अगुआई संन्याल और मजूमदार ने सक्रिय तौर पर की। यह आंदोलन किसानों के विद्रोह के तौर पर शुरु हुआ जो सामंती व्यवस्था खत्म करने की जिद ठाने बैठे थे। इस दौरान संन्याल और मजूमदार दोनों ने सशस्त्र विद्रोह का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि इसे सही भी ठहराया। जब प्रशासन आंख रहते हुए भी अंधा हो जाता है, सरकार कानों में रूई डालकर सो जाती है तो अक्सर ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं। हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रॉय की अगुवाई वाली राज्य पुलिस ने क्रूरता से इस आंदोलन को कुचल दिया। लेकिन असंतुष्ट और हाशिए पर रहने वालों और वंचित तबके का गुस्सा बंगाल में ज्वालामुखी की तरह आग उगलता रहा। इस आग का गवाह बना 1960 का आखिरी और 1970 का शुरुआती दशक। जारी.......

द्रविड़ यानी द वॉल की दीवानगी

यह बेहद ही दिलचस्प बात है कि सौरव गांगुली को सबसे सफल कप्तान माना जाता है और उनकी कप्तानी में भारत ने जिन 21 मैचों में जीत हासिल की उनमें टीम के कुल रनों में से 23 फीसदी अकेले द्रविड़ ने बनाए थे. इस दौरान द्रविड़ का कुल औसत सचिन से भी आगे निकल गया था और गेंदबाजों के लिए उनका विकेट सबसे कीमती हुआ करता था.
कुछ साल पहले द्रविड़ ने कहा था कि ऑफ साइड ड्राइव के मामले में भगवान के बाद तो सौरव गांगुली ही हैं. गांगुली ने इसके बदले में कुछ नहीं कहा. लेकिन ज़रा सोचिए यदि वह कुछ कहते तो शायद यही कि ऑन साइड में द्रविड़ की होड़ भगवान के साथ है.
द्रविड़ के साथ अक्सर ऐसा रहा कि पहले उन्हें खारिज कर दिया गया और बाद में उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से हर आलोचक को खामोश कर दिया. टेस्ट क्रिकेट द्रविड़ के मिजाज से मेल खाता है. ऐसे में यह कल्पना आसान है कि द्रविड़ का असली रूप खेल के इस संस्करण में ही दिख सकता है. लेकिन एकदिवसीय क्रिकेट और अब युवाओं का कहे जाने वाले खेल आईपीएल में उनका बल्ला ख़ूब बोल रहा है. द्रविड़ आज अपनी आईपीएल टीम बेंगलुरू की ओर से सबसे ज़्यादा रने बनाने वाले खिलाड़ी हैं.
करिअर के शुरुआती और आखिरी दोनों दौर में द्रविड़ जैसे खिलाड़ी के साथ जिस तरह बर्ताव किया गया यह देखकर खराब लगता है. इंग्लैंड के दौरे पर उनके लिए जो गड्ढ़ा खोदा गया था उससे बाहर निकलने में द्रविड़ को दो साल लग गए. वक्त बुरा हो तो साथी भी साथ छोड़ देते हैं. इस सीरिज के बाद कुछ जूनियर खिलाड़ियों ने भी उनकी आलोचना की थी. यहां तक कि उनकी फील्डिंग भी खराब हो गई. 14 पारियों में वे कोई शतक नहीं बना सके. लगातार यह कहा जाने लगा कि उनका वक्त खत्म हो गया है. दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड के खिलाफ उनके शतक आलोचकों को शांत करने में नाकामयाब रहे. मगर इसके बाद न्यूजीलैंड सीरिज में भी जब उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया तो सब खामोश हो गए. फिर अहमदाबाद और कानपुर की पारियों में उसी पुराने द्रविड़ की झलक दिखी. अभी हाल में बांग्लादेश के खिलाफ उसी द्रविड़ को एकबार फिर देखने को मिला. चोटिल होकर मैच से बाहर होने के पहले टेस्ट करियर का 29वां शतक ठोक अपनी सफलता की तरकश में एक और तीर शामिल कर चुके थे. इतनी सफलता हासिल करने के बाद भी यदि द्रविड़ वह मुकाम हासिल नहीं कर पाए, जितनी सफलता उनके समकालीन सचिन और गांगुली ने की तो बस यही कही जा सकता है कि क्रिकेट के इतिहास में द्रविड़ जैसे सितारा ने ग़लत वक्त पर अपनी चमक बिखेरने की कोशिश की. लेकिन वह वक्त भी आएगा जब क्रिकेट के इतिहासकार द्रविड़ की एक अलग ही गाथा लिखेंगे.

द्रविड़ की दीनता या दिलेरी

क्रिकेट के इतिहास में राहुल द्रविड़ के लिए क्या जगह होगी? क्या उन्हें एक महान खिलाड़ी के तौर पर याद किया जाएगा या भारतीय क्रिकेट के दीवार के तौर पर. या फिर एक ऐसे खिलाड़ी के तौर पर जिसकी सफलता हमेशा उसके अपने समकालीन साथी खिलाड़ियों की सफलता के तले दबी रही. अपना पहला ही टेस्ट खेलते हुए द्रविड़ ने 95 रन बनाए. यह किसी भी खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होती है कि वह अपने पहले मैच में बेहतर प्रदर्शन करे. द्रविड़ ने यही किया, लेकिन उन्हें बधाई नहीं दी जा सकती थी क्योंकि उसी मैच में सौरव गांगुली ने 131 रन बनाए और गांगुली का भी वह पहला मैच था. यह कोई पहला उदाहरण नहीं है. द्रविड़ की किस्मत ही कुछ ऐसी रही है. ज़रा याद कीजिए जब भारत ने कोलकाता के ईडेन गार्डेन में ऑस्ट्रेलियाई टीम के लगातार सोलह टेस्ट मैच जातने के रिकॉर्ड को तोड़ा था. उस टेस्ट में भी द्रविड़ के योगदान को कतई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. उस टेस्ट में द्रविड़ ने 180 रन का आंकड़ा छुआ तो उन्हीं के साथ दूसरे छोर पर खड़े वीवीएस लक्ष्मण ने 281 रन की पारी खेल डाली. द्रविड़ के साथ यह नाइंसाफी किसी और ने नहीं, बल्कि ख़ुद उनकी तक़दीर ने ही की. वह हमेशा बड़े पेड़ के ही तले दबे रहे. उनकी उपलब्धि किसी से भी कम नहीं है. पर जब जब द्रविड़ ने विशिष्ट प्रदर्शन किया, कोई दूसरा खिलाड़ी उनसे बेहतर खेल गया. वनडे मैच में जब उन्होंने उस समय का अपना सबसे बड़ा स्कोर 145 रन बनाए तो उसी पारी में सौरव गांगुली ने 183 रनों की पारी खेली. एक बार फिर जब द्रविड़ ने अपना यह रिकॉर्ड तोड़ते हुए न्यूजीलैंड के खिलाफ 153 रन मारे तो उसी पारी में सचिन तेंदुलकर ने नाबाद रहते हुए 186 रन ठोक डाले. इससे यह अंदाज़ा लगाना आसान मालूम पड़ता है कि द्रविड़ गलत दौर में पैदा हो गए जिसकी वजह से उन्हें सचिन तेंदुलकर और गांगुली जैसे खिलाड़ियों की छाया में खेलना पड़ा. लेकिन द्रविड़ ने हमेशा अपनी अहमियत साबित की. कई दफ़ा तो इन भारतीय दिग्गजों से बेहतर खेल दिखाया. जब भारतीय टीम के धुरंधर एक एक कर ताश के पत्तों की तरह ढेर हो जाते हैं तो यही दीवार टीम इंडिया की बुनियाद मज़बूत करता है. श्रीलंका के खिलाफ अहमदाबाद में खेले गए टेस्ट में 32 रन पर भारत के चार विकेट गिर गए थे. सहवाग, तेंदुलकर, लक्ष्मण पैवेलियन लौट चुके थे, मगर दर्शकों की उम्मीदें कायम थीं. इसलिए कि द्रविड़ क्रीज पर थे. उन्होंने निराश भी नहीं किया और भारत को 400 रनों के पार ले गए.

कलम का सिपाही या मजदूर

भारतीय शिक्षा में बदलाव अभी भी दूर की कौड़ी नजर आ रही है। शिक्षक क्लास में आते ही अपना ज्ञान बघारने लगते हैं। हालांकि उनके द्वारा बघारा जाने वला ज्ञान भी उनका मौलिक ज्ञान नहीं होता है। वह क्लास में आते ही बकर-बकर करने लगते हैं। हम छात्र उनकी बातों को कलम का सिपाही न बनकर, कलम का मजदूर नजर आने लगते हैं। शिक्षक न अपने दिमाग पर जोर देना चाहते हैं और यह तो कतई ही नहीं चाहते कि विद्यार्थी भी अपनी दिमागों पर जोर दें। ऐसा होने पर उनकी हालत पतली होने लगेगी। यह बात किसी प्राथमिक क्लास की नहीं है। पीजी के क्लास की है। आज कुछ हुआ यूं कि प्रेमचंद की रचना साहित्य का उद्देश्य पढ़ाते-पढ़ाते, गुरूजी महिलाओं का उद्देश्य पढ़ाने लगे। उनके मुताबिक, जिस तरह प्रेमचंद की रचनाओं का उद्देश्य आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद है, उसी तरह महिलाओं का भी उद्देश्य है। वह है शादी करके ससुराल जाना। यह बातें गुरूजी ने क्लास के दौरान कुछ लड़कियों पर अपनी विशेष टिप्पणी के दौरान बघेरी।
एक तरह से देखा जाए तो अभी भी हमारी मानसिकता बदली नहीं है। जब कभी भी और कहीं भी हमें कोई मौका महिलाओं के खिलाफ कोई टीका-टिप्पणी का मिलता है, उसे करने से हम चूकते नहीं।
इस दौरान एक बात और मुझे समझ में आई वह यह कि शिक्षक जब हमें पढ़ाते हैं तो वह खास कर दो बातों पर जरूर ध्यान देते हैं। वैसी बातें जिनपर उन्हें ज्यादा आत्मविश्वास होता है, उसके बारे मे वह कहेंगे इसे करना थोडा कठिन है। हालांकि वह बात हर छात्र जानता है कि जिसे गुरूजी कठिन बता रहे हैं, वह बेहद आसान है। दूसरी बात वह किसी चीज को यदि वह आसान बता रहे हों तो इसका मतलब होता है कि वाकई वह काम वाकई मुश्किल है। या तो वह हमारा हौसला अफजाई करने के लिए उसे आसान बताते हैं या फिर इज्जत का सवाल उनके लिए बन जाता है साथ ही छात्रों के लिए भी। इसलिए छात्र भी उसके बारे में टीचर से नहीं पूछते हैं। यानी इस मनोवैज्ञानिक खेल में अपने अचूक अस्त्र का इस्तेमाल कर गुरू जी चोर दरवाजे से अपना पिंड छुड़ा लेते हैं।
एक तरह से यदि कहा जाए कि हमारी शिक्षा पद्धति अपने मूल रास्ते से भटक गई है तो गलत कतई नहीं होगा। वह भी यह अपने घर में अपना रास्ता भूल गई है। ऐसे में मुझे दुष्यंत की दो पंक्तियां याद आती है कि किस तरह इसे रास्ते पर लाया जा सकता है या उसका समाधान क्या है? या फिर समाधान क्यों नही निकल पा रहा है....
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा जाता।
हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे।।

हमारे सपनों का मर जाना

पाश एक पंजाबी कवि हैं। इनकी एक बेहतरीन रचना याद आ रही है। दरअसल यह लागू तो हर क्षेत्र और हर मायनों में हो सकती है। पर यहां मैं खासकर इसका इस्तेमाल मीडिया के संदर्भ में करना चाहता हूं। मीडिया वालों की जिंदगी भी कुछ इसी तरह की हो गई, जैसा कि अपनी इस कविता में पाश ने कहा है,

सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना,
न होना तड़प का, सबकुछ सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर और काम से लौट के घर आना,
सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।

दरअसल आजकल जिस तरह मीडिया के मायने बदलें हैं, उसी तरह मीडियाकर्मी का चेहरा, उसकी सोच और विचारधारा भी बदली है।

पुरुषों का दोगला चेहरा

कल्बे जव्वाद साहब। जनाब मुस्लिम धर्मगुरू हैं। इन्होंने हाल फिलहाल में फरमाया है कि महिलाओं को सिर्फ लीडर पैदा करना चाहिए, उन्हें लीडर नहीं बनना चाहिए। यानी औरतें बस बच्चे पैदा करने के लिए है और उन्हीं से पैदा हुए बच्चे उनका ही अपमान करते हैं। कहते हैं इस्लाम में सबके के लिए बराबरी की बात कही गई है। तो क्या यहां सभी का मतलब सिर्फ पुरुषों से है? महिलाओं के लिए कहीं जगह ही नहीं है। हाल में भारतीय संसद में महिला विधेयक को लेकर एक तरह से इतिहास रचा गया। इसके बावजूद लोगों की मानसिकता में बदलाव आना तो दूर, जरा सा भी फर्क नहीं पड़ा है। इस तरह यदि देखें तो हमेशा से हम पुरुष महिलाओं को दोयम दर्जे का बनाकर ही रखना चाहते हैं। हमें लगता है कि महिलाएं यदि घर से बाहर कदम रखने लगीं तो उनकी सत्ता को चुनौती मिलने लगेगी, जो पुरुषों को कतई बर्दाश्त नहीं होगा।
यदि जादू टोन के नाम पर किसी की मौत होती है तो बस महिला की। डायन बता कर किसी को मारा जाता है तो महिलाओं को। डायन बताकर किसी पुरुष की हत्या की गई हो ऐसा शायद ही आपने सुना हो। जादू-टोना हो या कोई दूसरी बात हम अक्सर महिलाओं को उनकी औकाद दिखाने पर उतारू हो जाते हैं। आज देश में बहस महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की चल रही है। वहीं दूसरी एक खबर उड़ीसा से आई है। खबर सुंदरगढ़ जिले के जंगाला गांव की है। यहां एक महिला को नंगा घुमाया गया। पहले तो इस मिहला पर जादू-टोना करने का आरोप लगाया गया। उसके बाद उसे हजारों लोगों के सामने निर्वस्त्र कर घुमाया गया। ऐसे करते हैं हम मगिलाओं की इज्जत। उदारवादी और तथाकथित आधुनिक होने का चोला पहनकर हम न जाने कितने कुकर्म करते हैं। इस प्रदेश के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हैं। इनकी छवि साफ सुथरी और अच्छे प्रशासक की है। खैर, होता है। सभी के साथ ऐसा होता है।
हेडिंग में दोगला शब्द का इस्तेमाल कर मैंने ज्यादा ही ओछा शब्द या गाली इस्तेमाल कर लिया तो माफी चाहूंगा। पर इससे सटीक शब्द पुरुषों के लिए इन दो किस्सों के लिए कोई और नहीं लगा।

देश हमारा भूखा- नंगा

दोस्तों आप सबकी मदद चाहिए। दरअसल काफी दिनों से बाबा नागार्जुन की एक कविता का नाम याद करने की कोशिश कर रहा हूं। पर काफी मेहनत-मशक्कत के बाद भी मुझे याद नहीं आ पा रहा है। हालांकि उसकी चंद लाइनें याद हैं मुझे। उसे पोस्ट कर रहा हूं और आपसे उम्मीद करता हूं कि आप जरूर इस कविता का नाम याद करने में मेरी मदद करेंगे। जरूर बताइएगा कि यह उनकी कौन सी रचना है। कविता के बीच की पंक्तियां कुछ इस तरह हैं....

देश हमारा भूखा नंगा,
घायल है बेकारी से,
मिले न रोजी-रोटी भटके
दर-दर बने भिखारे से,
स्वाभिमान-सम्मान कहां है,
होली है इंसानों की............

बस मुझे इतना ही याद है। आपसे उम्मीद है कि आप जरूर मेरी मदद करेंगे कि नागार्जुन की कौन सी रचना का यह भाग है।

पंडितई की आड़ में देह की दलाली

आजकल चिरकुट बाबाओं की भरमार है। बाबा, संन्यास लेकर सभी तरह की मोह-माया से मुक्ति का ढोंग करते हैं। किस तरह करते हैं, आजकल बाबा लोग सेक्स रैकेट से लेकर कई विवादों में फंस रहे हैं, यह सबसे बड़ा सबूत है। यह सभी ने देखा भी है। बाबा लोग पंडितई की आड़ में दलाली करते नजर आए। महिलाओं के देह की दलाली। कल को अगर कोई बाबा अपना नाम दलाली बाबा रख लें तो कतई हैरानी नहीं होगी। जमाना बदल रहा है। पहले समलैंगिकता को वैधता मिली, हो सकता है देर-सबेर इस धंधे को भी वैधता मिल जाए। कई देशों या अपने यहां भी वेश्यालयों को सरकारी अनुमति देने की बात तो चल ही रही है। बाद में कानूनी संशोधन के जरिए यह भी किया जा सकता है कि सेक्स रैकेट चलाना अपराध नहीं है, एक पेशा या उद्योग है। इसे माना भी जाने लगे। पहले इच्छाधारी बाबा। नित्यानंदजी। हालांकि, आसाराम बापू को इस दर्जे में नहीं रखा गया है, पर उनकी जुबान से निकलने वाली गालियों की बरसात और दबंगई किसी से छिपी नहीं है। इसके अलावा हिंदुत्व के नाम पर लोगों को बरगलाने का ठेका भी शायद इन्हीं बाबाओं के नाम है। आतंकवाद का भी जिम्मा अब शायद ये अपने हाथों में लेने लगे हैं। साध्वी प्रज्ञा और तथाकथित शंकराचार्य दयानंद अभी जेल की हवा खा ही रहे हैं। फर्जी साईं बाबा, सत्य साईं बाबा...हाल में कृपालु महाराज के मंदिर में भगदड़ मची...इसके बाद कृपालु महाराज ने कहा कि मरने वालों को ईश्वर ने मारा है, न कि ये अव्यवस्था से मरे हैं...वैसे तो हरकोई ईश्वर की मर्जी से ही मरता है... हम हर समस्या के लिए ईश्वर को दोषी आसानी से ठहरा सकते हैं। इस तरह हम सभी बगैर परेशानी के इस दुनिया में रह सकते हैं। किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी। पर ऐसा है नहीं। हमारे सामने खाना रखा हो और हम हाथ से निवाला अपनी मुंह में न रखे तो इसके लिए हम भगवान को कैसे कसूरवार ठहरा सकते हैं, जनाब। इसके अलावा कई ऐसे मिसाल हमें आस-पास ही मिल जाएंगे। लेकिन इन सबके बावजूद धर्म के नाम पर ठगी कभी रुकती नहीं। लोग बरबस ही इन बाबाओं के शरण मे खिंचे चले आते हैं...आखिर क्यों? इसका जवाब अभी मुझे भी तलाशना है...

मोहब्बत की अनूठी दास्तां

शिवांगी शर्मा। मेरे पूरे क्लास में तीन लड़कियों में सबसे ख़ूबसूरत और मुमकिन तौर पर हम सभी में सबसे अक्लमंद भी। क्लास में मोनिटर होने के नाते काफी धाक थी मेरी। शायद इसलिए कि छोटी सी ग़लती पर भी मैं शिकायत कर देता था...जिसकी वजह थी मेरा थोड़ा नकचढ़ा, जिद्दी और घमंडी होना। शायद लोग तो कम से कम यही कहते थे। एक ऐसा लड़का जिसे अपनी सीमित ताकत को ज़रा-सा भी शेयर करना कतई पसंद नहीं। लेकिन साथ में अपने काम के प्रति लगनशील और ईमानदार भी। एक बचपना था लेकिन कहीं गुम हो गया था। यहां तक आपने पछले पोस्ट में पढ़ा, आगे.....
एकबार जब भैया ने दिल्ली से छोटा –सा कैलकुलेटर भेजा था तो बहुत ख़ुश हुआ था मैं। ख़ुद से ही वादा किया, मैं हमेशा दिल लगाकर पढ़ूंगा और एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर दिखाउंगा, मां-बाप का नाम रोशन करूंगा। लेकिन कहते हैं न, समय से पहले और भाग्य से ज़्यादा न कभी किसी को मिला है, न मिलेगा। सारा खेल मेहनत का ही नहीं होता, तक़दीर भी आदमी की ज़िंदगी में काफी अहम रोल प्ले करता है। यही खेल चल भी रहा था। पापा के साथ रहते-रहते भाई साहब ने उनके साथ ही काम करने वाले एक अफ्सर की बेटी से प्यार की पींगे पढ़ने लगे। पहले तो उस कैंपस में जितने भी ऑफ़ीसर्स रहते थे, सबका छोटा-मोटा काम कर देते थे, जिसकी वजह से सबके चहते थे। सभी उसे बहुत मानते। इसी बीच कब त्यागी जी की बेटी से उनकी आँखें चार हो गईं, पता ही नहीं चला। शायद वो भी मानते थे कि इश्क किया नहीं जाता, हो जाता है। धीरे-धीरे उनके घर आना-जाना थोड़ा अधिक हो गया। मतलब त्यागीजी की बीवी की हर बातों को मानने लगे। उनको भी लगा भगवान ने केवल दो बेटियां ही दी हैं तो क्या हुआ तुम मेरे बेटे जैसे..., नहीं...तुम्हीं मेरे बेटे ही हो। क्यों हो न राज। भाई साहब भी क्या बोलते, मोहब्बत जो किए बैठे थे। वैसे भी इस दुनिया में दो मां होती हैं, एक अपनी मां और दूसरी सासु मां(बाद में मां जी)। ख़ैर, बात काफी आगे बढने लगी। अपनी तरफ से तो शादी तक की बात पक्की कर ली थी। एक तो प्रेम-विवाह, तिस पर दूसरे जात की लड़की से। ज़माने के मुताबिक़ एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। इस दौरान, मम्मी और पापा को भी अब तक सारी बातें पता चल चुकी थीं। बस अंजाम तो तय था। भाई साहब को वापस घर भेजना। लेकिन होना तो कुछ और लिखा था। जिस दिन घर आना था, उसके एक दिन पहले नींद की दस-बीस और पता नहीं कौन-कौन सी गोलियां सब एक साथ खा ली। गनीमत था कि कॉलनी के एक शख़्स ने इनको बेहोशी की हालत में देख लिया और बीच बाज़ार से अस्पताल ले गया। बाद में मम्मी-पापा को इत्तला दी। थोड़ा- बहुत सही होने पर उन्हे वापस घर लाया गया। लेकिन हालत अभी भी नाजुक थी। न तो किसी को पहचानते थे, न ही दवा खाते बस ऐसी हरकतें कि शर्मिंदा होने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था। दो महीने हो गये थे। काफी जगह डॉक्टरों से दिखाया गया लेकिन नतीजा अभी भी कुछ नहीं निकला था। पानी और चाय में दवाई इस तरह से मिलाकर खिलाई जाती कि पता न चलें। .........उधर वह लड़की जिनसे मोहब्बत परवान चढ़ा था, किसी दूसरे साजन की सहेली हो गई। हालांकि यह बात इनको मालूम नहीं थी। आगे जारी..........

कहानी में छिपा एक सच

ख़ुद को समझना भी कभी काफी मुश्किल होता है। दु:ख होता है जब हम ख़ुद को ही समझने की कोशिश में असफल होते हैं। अपनी बेचैनी, छटपटाहट और तड़प में हर पल जीने को मज़बूर हो जाते हैं। अपनी फीलींग्स का एहसास तो होता है, लेकिन जब उसे शब्दों में बयां नहीं कर पाते तो दिल की कसक जो एक कोने में छिपी रहती है, अक्सर टीस मारने लगती है। तब जीना लगता है मानो मौत से भी बदतर हो गई है।
जब हम कॉलेज की चारदीवारी के भीतर होते हैं, तो दुनिया हमारी मुट्ठी में होती है। सिगरेट के कश लगाते हुए जिंदगी ऐसे जीते हैं मानो किसी की फिक्र ही नहीं है। वीकेंड बीयर की बोतल और दोस्तों के साथ गुजरती है तो लगता है, ज़िदगी को हमने मुट्ठी में कर लिया है। फिर रात, दिन की तरह और दिन तो ख़ैर....पापा की डांट से जब सुबह होती तो हमेशा यही सोचता कहां से भगवान ने इन्हें मेरा बाप बना दिया। पता नहीं इतना पैसा रखकर क्या करेंगे। ख़ुद तो चालीस की उम्र में ही साठ के लगने लगे हैं और इनको लगता है कि मैं भी कुछ ऐसा करूं जो इनकी शोहरत में चार चांद लगाए। धन-दौलत में दिन-दोगुनी और रात-चौगुनी तरक्की होने लगे। लेकिन कौन बेवकूफ़ उनकी बातों पर अमल करता है। भैया को तो कभी नहीं कहते जबकि वो हमेशा आवारागर्दी में लगे रहते हैं। बड़े शान से अपने साथ रखने के लिए उनको ले गए थे। और बाद में मां और दीदी को भी ले गए। मुझे अकेला छोड़ दिया दादी के साथ। तब मेरी उम्र ही क्या थी...बस पांचवीं मे ही तो गया था। और पहली बार अकेले छोड़ दिया, बग़ैर ये जाने की मुझ पर क्या बीतेगी। उस पर जो कभी अकेला नहीं रहा। लेकिन फिर भी अकेला रह गया, कुछ भी नहीं बोला मैंने। इस तरह से हमेशा से अकेले रहने की आदत हो गई। शिवांगी , हां यही तो नाम था उसका। शिवांगी शर्मा। मेरे पूरे क्लास में तीन लड़कियों में सबसे ख़ूबसूरत और मुमकिन तौर पर हम सभी में सबसे अक्लमंद भी। क्लास का मिनटर होने के नाते काफी धाक थी मेरी। शायद इसलिए कि छोटी सी ग़लती पर भी मैं शिकायत कर देता था...जिसकी वजह से थोड़ा नकचढ़ा, जिद्दी और घमंडी भी था। एक ऐसा लड़का जिसे अपनी सीमित ताकत को ज़रा-सा भी शेयर करना कतई पसंद नहीं। लेकिन साथ में अपने काम के प्रति लगनशील और ईमानदार भी। एक बचपना था लेकिन कहीं गुम हो गया था।

कितना मुश्किल है उपदेश देना

अच्छाई के लिए यह जरूरी है कि हम दूसरों की बात सुनने में तत्परता दिखाएं। जब बोलने की हमारी बारी आए या फिर कोई गुस्से की बात हो तो हमें अधिक उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए। गुस्सा और बदला लेने की प्रवृत्ति कभी भी नेकिनयति को बढ़ावा नहीं दे सकती है। सबसे बड़ी बात यह हमें सच्चाई के प्रति अंधा बना देती है। और, आंख के बदले आंख वाले बदले की भावना से तो पूरी दुनिया ही अंधी हो जाएगी।
कई लोग यह कहते फिरते हैं कि इस खूबसूरत दुनिया में दर्द और दुख के लिए कोई जगह नहीं है। तो फिर ऐसा क्यों है कि अधिकांश लोग दुखी होते हैं? यदि देखा जाए तो दुख की एक वजह मानवीय संबंध है। इसलिए शायद यदि इन समस्याओं या दुख के लिए किसी को कसूरवार ठहराया जा सकता है तो वह हम ही हैं, न कि प्रकृति या भगवान। परिवार में आपसी मनमुटाव, पड़ोसियों से तनातनी, दोस्तों से संघर्ष और सहयोगियों से खींचतान। यहां तक कि सबसे बेहतर इंसान भी रिश्तों को तार-तार करने में न चाह कर भी गलतियां कर बैठता है। अकेलेपन में जीना कोई विकल्प नहीं है। इसकी वजह यह है कि हम सभी एक-दूसरे पर निर्भर हैं और हमें एक-दूसरे की जरूरत है। सारी समस्याओं की जड़ मानवीय प्रकृति में निहित है। पुरूषों के भीतर वह क्या है, जिससे उन्हें कलंकित होना पड़ता है? जब हमारे दिल के अंदर और दिमाग से बाहर बुरी सोच निरंतर बाहर आती है, तो इन सभी से हमारा चरित्र प्रभावित होता है। इन सभी बातों का लोगों और घटनाओं पर असर पड़ता है। किसी घटना या परिस्थिति सो कोई प्रभावित नहीं होता है, बल्कि हमारी प्रतिक्रिया से लोगों पर व्यापक असर पड़ता है। और, अपनी इन गलतियों को कबूलना सचमुच में काबिलेतारीफ है। इन बुरी प्रवृत्तियों से मुक्ति के लिए हमें ईश्वर के प्रेम की जरूरत है। ईश्वरीय-आत्मा एक इंसान में मोहब्बत पैदा करने का काम करती है। वह हमें कभी गलत रास्तों पर नहीं ले जा सकती है। यह मोहब्बत या प्यार उनमुक्त और बना शर्तों वाला होता है। अब जबकि हम बात अच्छे संबंधों की कर रहे हैं तो अच्छे संबंधों के लिए आवश्यक है कि हमलोगों को साथ अच्छे से पेश आएं। यदि हम दूसरों से मान-सम्मान चाहते हैं तो हमें भी उन्हें बदले में यही देना चाहिए। इसके अलावा हमें उन सभी को माफ कर देना चाहिए, जिन्होंने कभी हमारे साथ बुरा किया है। लोगों को माफ करने प्रवृत्ति संबंधों को बरकरार रखने के लिए बेहद जरूरी है, क्योंकि स्वभाव से हम सभी अपूर्ण हैं।

महिला दिवस के मायने

शुरुआत महिला दिवस से। लेकिन बात करूंगा दो महिलाओं की। क्योंकि मुझे लगता है, ज्ञान बघारने से बेहतर है, हालात को समझना।
सानिया की सगाई की ख़बरों से उनके प्रशंसक निराश हुए थे। उसके बाद इस बात से हैरान हुई कि आख़िर सानिया की सगाई टूटने की असलियत क्या है? यह बेहद दिलचस्प है कि सानिया ने जिससे सगाई की, उसे वह बहुत पहले से जानती थीं। लेकिन सानिया के मुताबिक, सगाई होने के बाद उनको इसका एहसास हुआ कि वह एक दूसरे के लिए नहीं बनें है। लेकिन सगाई टूटने की वजह कुछ और थी। क्योंकि दोनों एक-दूसरे को बचपन से जानते थे और ऐसे में इस बात पर आसानी से यकीन करना मुश्किल ही है कि दोनों एक-दूसरे के मनमाफिक नहीं थे। इस सगाई के टूटने के पीछे की वजह एक भारतीय टेनिस खिलाड़ी ही है। वह हैं, महेश भूपति. कुछ दिनों पहले इन दोनों के बीच प्रेम प्रसंग की बात सामने आई थी. और, ऐसा माना जा रहा था कि हाल ही में भूपति ने अपनी पत्नी को तलाक इन्हीं वजहों से दिया। यह खबर मीडिया में हर जगह सुर्खियां बटोरती नजर आई। लेकिन फिर वही मीडिया चुप है तो हर जगह खामोशी है। लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि सानिया के खेल में अब सुधार होगा। लेकिन कहां हुआ? हल्ला था शादी के बाद वह खेल छोड़ देंगी। वह भी नहीं हुआ। जब शादी नहीं की, तो खेल छोड़ने का मतलब ही नहीं बनता।
लेकिन इन सबके बीच मुझे जो बात सबसे ज्यादा कचोटती है, वह यह कि आखिर सानिया ने वह कौन सी उपलिब्ध हासिल कर ली, जो उसे रातोंरात स्टार बना दिया गया। एक महिला होने के नाते उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया। कई लोगों का यह तर्क हो सकता है। इसमें कोई शक भी नहीं है। लेकिन सानिया की तरह कई महिलाओं ने भी महिला होकर बड़े बड़े नाम किए हैं। वह आज कहीं नहीं हैं। आज जब आप 12 बजे के बाद दिल्ली की सड़कों से गुजरेंगे तो एहसास हो जाएगा कि महिलाएं क्या करती हैं? दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल का भव्य आयोजन होने वाला है। इसके लिए दिल्ली को संवारा सजाया जा रहा है। इनमें महिलाओं का योगदान कम नहीं है। वह सिर पर ईंट ढोती और सड़क निर्माण में व्यस्त आपको नजर आ जाएंगी। मर्दों को हर तरह से चुनौती देने को तैयार हैं, महिलाएं. सानिया ने चंद पदक जीतेने के बाद आज लगातार पहले या दूसरे सेट में प्रतियोगिता से बाहर हो जा रही हैं। लेकिन उनकी जिंदगी ऐशोआराम से गुजर रही है। पर इन महिलाओं का क्या ? निराला ने भी अपनी रचना वह तोड़ती पत्थर में क्या बात कही थी। वो तोड़ती पत्थर, देखा मैंने उसको इलाहाबाद के पथ पर। आज हर जगह देख सकता है हर कोई......

मेट्रो में मोहब्बत का सफर

घर की चाहरदीवारी में पुरूषों के फैसलों को मानने को मजबूर रहने वाली महिलाएं उन्हें उनके फैसलों को चुनौती दे रही थीं। उन्हें ललकार रही थी कि अब तुम्हारा दौर गया, अपनी बकवास बंद करो और यदि तुम कुछ नहीं कर सकते, उनका सम्मान नहीं कर सकते तो उनके अधिकार पर भी हाथ साफ नहीं कर सकते। इस तरह दोनों महिलाओं की खरी-खोटी सुनकर उन सज्जन की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। यह वाकया देखकर मेट्रों के उस बोगी में सवार सारे लोग ऐसे हंसे मानो राजू श्रीवास्तव ने कोई चुटकुला सुनाया हो। जनाब लुटेपिटे से नजर आने लगे और अपनी जगहंसाई के बाद जुबान को अपनी हलक के नीचे ऐसे छुपाया, मानो सदियों से मौन व्रत रखा हो। इसी दौरान मेरी नजर उस लड़की पर पड़ी, जो शुरू से अभी तक वहीं बैठी थी, जहां पहले थी, जिस हालत में पहले थी, अभी भी उसकी हालत वैसी ही थी। हां, चेहरे की रौनक कहीं से लौट आई थी। ठीक उसी तरह जैसे अशोक वाटिका में हनुमान रामचंद्रजी का संदेश लेकर आए थे। पता नहीं उसे कहां उतरना था? इसी बीच वह सुदंर बाला अचानक अपने पर्स से मोबाइल निकाल कर किसी बातें करने लगी। जब उसने बात करने के लिए मोबाइल निकाला तभी मुझे पता चल पाया कि उसके पास एक पर्स भी है। खैर, शायद उसकी जिससे मुलाकात मुकर्रर हुई थी, उसी का फोन था। बात करने के दौरान, लोगों देखती हुई थोड़ी मुस्कराती और थोड़ी शर्माती हुई उसने काफी समय तक अपनी बात जारी रखी। एक तरह से प्रेमकांड का यह दौर काफी लंबे समय तक फोन पर शुरू हो चुका था...पर ज्यादा समय तक उसका गवाह बने रहने की खुशनसीबी मुझे न मिल सकी...कारण मेरे अफिस का स्टेशन आ चुका था...मुझे न चाहते हुए भी इस प्रेम प्रसंग का अधूरा किरदार बनना पड़ा। इस बात का मलाल मुझे हमेशा रहेगा। साथियों मैं आपसे सब से भी, माफी चाहूंगा...

मेट्रो में मोहब्बत का सफर-पार्ट टू

...डेढ़ आदमी के बैठने लायक जगह पर वे ढाई लोग एडजस्ट कर रहे थे। फिर भी वह सज्जन बार-बार एक पिता की तरह किसी तरह की दिक्कत न होने के बारे में पूछते, लड़की भी किसी तरह की दिक्कत न हो होने की बात ठीक उसी तरह बार-बार दोहराती जैसे कोर्ट में सुनवाई के दौरान गवाह अपनी बात पर डटा रहता है। दो स्टेशन के बाद राजकुमार टाइप और रिन या टाइड के ब्रांड एंबेस्डर से दिखने वाले सज्जन उतर गए तो वह जगह फिर से खाली हो गई। यानी एक आदमी अभी भी वहां आराम से बैठ सकता था। पर इस स्टेशन पर दो महिलाएं दाखिल हुई थीं। एक बात आपको इस दरम्यान बताना भूल ही गया कि वो जो तीन महापुरूष महिलाओं की सीट पर बैठे थे, उनमें से जिन्होंने पहले यह बात पूछी थी कि क्या यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है, दोबारा अपनी बात को कंफर्म किया। उन्हें इसबार जवाब मिला, हां। जवाब दिया उन्हीं राजकुमार टाइप वाले सज्जन ने। हालांकि यह अलग बात है कि उनके सामने कुछ महिलाएं खड़ी थीं और वह अपना यह स्वाभाविक ज्ञान बघार रहे थे। पर इसके बाद उन सज्जन ने अपनी बात दोबारा कंफर्म करने के बाद अपनी सीट महिलाओं के लिए खाली कर दी। ठीक उसी तरह जैसे विश्वामित्र ने अपना सिंहासन त्यागकर जंगल में संन्यास को कूच कर गए थे। विश्वामित्र को उनके परिजनों ने उनके इस साहसिक कदम के लिए बहुत रोका, मान-मनुहार किया था। फैसला बदलने के लिए उनके परिजनों ने भी काफी कोशिश की। पर विश्वामित्र नहीं माने, अपने फैसले पर अडिग रहे। भला वह कोई सांसद थोड़े ही थे, जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कभी इस पार्टी तो कभी उस पार्टी में मुंह मारे फिरते। आखिरकार वह ज्ञान की तलाश में चले ही गए। इसी तरह वह सज्जन अपनी बात कंफर्म होने के बाद अपनी उस सीट को खाली कर चुके थे, जो महिलाओं के लिए वैसे भी आरक्षित थी। बस उन्हें थोड़ी दुविधा हो गई थी, विश्वामित्र की तरह।
चलिए विश्वामित्र ने जब फैसला ले ही लिया था, फिर उस फैसले पर विचार करने का कोई मतलब ही नहीं बनता था, उससे तो विश्व का कल्याण ही हुआ। यहां विश्व का कल्याण तो नहीं, पर एक बुजुर्ग महिला को थोड़ी देर के लिए राहत जरूर मिल गई। थोड़ी देर के लिए इसलिए क्योंकि अगले स्टेशन पर वह उतर गईं। इसी स्टेशन पर ग्रामीण परिवेश वाली दो महिलाएं अपने बच्चों के साथ मेट्रों में दाखिल हुई। उस सीट पर बैठी गई, जिसकी अभी तक हम बातें करते आ रहे हैं। अब यहां भी एक समस्या आन पड़ी। जगह थी एक के लिए और महिलाएं थी दो। फिर वही जुगाड़ अपनाया गया, एडजस्ट करने का फंडा। उन दो महिलाओं में एक बैठ चुकी थी, दूसरी बैठने ही वाली थी, तभी एक आकाशवाणी तो नहीं उसे मेट्रोवाणी जरूर कह सकते हैं। उसी चेयर पर बैठे एक महापुरूष से दिखने वाले सज्जन ने कहा अरे इस पर कैसे बैठ पाओगी, जगह कहां है? उसके बाद तो उस महिला ने जो जवाब दिया उसे सुनकर मेरे जेहन में दो बाते आती हैं.... पहली बात तो यह कि यह आधुनिक महिला युग का सूत्रपात है या महिलाएं भी अब पुरूषों से कम नहीं। घर की चाहरदीवारी में पुरूषों के फैसलों को मानने को मजबूर रहने वाली महिलाएं उन्हें उनके फैसलों को चुनौती दे रही थीं। उन्हें ललकार रही थी कि अब तुम्हारा दौर गया, अपनी बकवास बंद करो और यदि तुम उनका सम्मान नहीं कर सकते तो उनके अधिकार पर अपना हाथ साफ भी नहीं कर सकते।

मेट्रो में मोहब्बत का सफर-पार्ट वन

हररोज एक ही रास्ते से गुजरने पर बोरियत का एहसास होने लगता है। वजह शायद यह है कि हमें हररोज कोई बदलाव नजर नहीं आता है। हरदिन वही मंजर और वही नजारा...इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि हम बदलाव देखना नहीं चाहते या फिर बदलाव हमें नजर ही नहीं आता। ज्यादातर मामलों में होता यह है कि हमें बदलाव नजर ही नहीं आता। क्यों यह विचार का मसला हो सकता है...उसे देखने के लिए पैनी नजर और हमारे दंत कथाओं में जो प्रचलित है, उसके मुताबिक, गिद्ध दृष्टि की जरूरत पड़ती है। तभी हम छोटे से भी बदलाव को देख पाते हैं।
तारीख थी 4 फरवरी... मैं मेट्रों से ऑफिस जा रहा था. वैसे छुट्टी वाले दिन को छोड़कर हररोज ही जाता हूं...उस दिन किस्सा कुछ यूं हुआ... मेट्रों में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित रहती है, यह तो सभी को पता है। लेकिन उस दिन उन सीटों पर चार महिलाएं और चार पुरूष बैठे थे, मानों स्त्री-पुरूष की असमानता को दूर करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हों। तभी अगले स्टेशन पर एक महिला दाखिल हुईं, उसे देखकर एक भद्र दिखने वाले पुरूष अपने बगल वाले सहयोगी से पूछने लगे, यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है क्या? इस पर उन्होंने जवाब दिया नहीं, जिधर महिलाएं बैठी हैं वहीं तक आरक्षित है। दरअसल उन्हें भी गलतफहमी हो गई हो, शायद दिल्ली की ब्लू लाइन बसों की तरह वह भी धोखा खा गए हों...मुमकिन है, मेट्रों में थोड़े अंतराल के बाद सुनाई देने वाली आवाज भी उन्होंने न सुना हो, जिसमें कहा जाता है कि अपनी सीट महिलाओं, विक्लांगों और अपने से ज्यादा जरूरतमंदों के लिए खाली कर दें। खैर, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। गलती हर किसी से हो सकती है। वैसे भी वह अधेड़ महिला जिसे देखकर भद्र से दिख रहे महानुभव ने यह बातें पूछी थी, उनसे ज्यादा तंदरूस्त नजर आ रही थी।
खैर, अगले स्टेशन पर फिर एक 50-60 की उम्र के एक सज्जन मेट्रो में तशरीफ लाए। बदन पर व्हाइट कलर के कपड़े, शायद सफारी सूट था और पैरों में व्हाइट कलर के जूते। मानो रिन या टाइड के ब्रांड अंबेस्डर हों। हालांकि दोनों में सबसे सफेद कौन है, इसको लेकर रिन के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है...खैर हमारा मकसद किसी की तौहीन करना नहीं है, इसलिए मैं अपनी बात कहता हूं। हां, तो जनाब अंदर आए और जो सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी, वही जिसकी चर्चा मैंने पहले की। आठ लोग (संख्या कम या ज्यादा हो सकती है, पर स्त्री-पुरुष का अनुपात बराबर था) पहले ही बैठे थे। दो महिलाएं और एक नवयुवती। लड़की, वह ज्यादा खूबसूरत नहीं थी (हालांकि मेरा मानना है कि लड़कियां दो तरह की होती हैं, एक खूबसूरत और दूसरी अधिक खूबसूरत)। उसे देखकर लगता था कि वह परेशान है। अपनी कम खूबसूरती की वजह से उसे ग्लानि महसूस हो रही है। फिर भी लोगों को देखते हुए मुस्कुरा रही थी। सलवार सूट में खुद को परी से कम भी नहीं समझ रही थी। बस अपनी खूबसूरती और कम खूबसूरती के अंतर्द्वंद्व में उलझी हुई थी। हां, तो फिल्म अभिनेता राजकुमार की तरह सफेद कपड़े और जूते में सराबोर सज्जन आए उस लड़की के घुटने को साइड करते हुए बेहद कम जगह में किसी तरह एडजस्ट हो गए। बेचारी लड़की भी सिमट गई। राजकुमार टाइप वाले सज्जन बार-बार उस लड़की से पूछ भी रहे थे कि दिक्कत तो नहीं हो रही है, हालांकि लड़की और वह सज्जन अच्छी तरह जानते थे कि डेढ़ आदमी के लिए बैठने वाली जगह पर वे ढाई लोग एडजस्ट कर रहे थे।
फिर भी वह सज्जन बार-बार एक पिता की तरह (जरूरी नहीं कि पिता की उम्र का दिखने वाला शख्स पिता की तरह ही पेश आए, यह बात यहां भी लागू होती है) किसी तरह की दिक्कत न होने के बारे में उस लड़की से पूछते, लड़की भी किसी तरह की दिक्कत न हो होने की बात ठीक उसी तरह बार-बार दोहराती जैसे कोर्ट में सुनवाई के दौरान कोई गवाह अपनी बात पर डटा रहता है। जारी...

क्राइसिस ऑफ क़न्शस

हिंदुस्तान मे पढ़े-लखे लोग कभी-कभी एक बीमारी का शिकार हो जाते हैं। उसका नाम क्राइसिस ऑफ क़न्शस है। कुछ डॉक्टर उसी क्राइसिस ऑफ फेथ नाम की एक दूसरी बीमारी भी बीरीकी से ढूंढ निकालते हैं। यह बीमारी पढ़े-लिखे लोगों में आमतौर से उन्हीं को सताती है, जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं और जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं, बल्कि आहार-निद्रा-भय-मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं। (क्योंकि अकेली बुद्धि के सहारे जीना एक नामुमकिन बात है।) इस बीमारी में मरीज एक मानसिक तनाव और निराशा वाद के हल्ले में लंबे-लंबे वक्तव्य देता है, जोर-जोर से बहस करता है, बुद्धिजीवी होने के कारण अपेन को बीमार और बीमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है और अंत में इस बीमारी का अंत कॉफी-हाउस की बहसों में, शराब की बोतलों में, आवारा औरतों की बाहों में, सरकारी नौकरी में और कभी-कभी आत्महत्या में होता है। यह बात श्रीलाल शुक्ल ने अपनी रचना राग दरबारी में कही थी। आज नहीं बहुत पहले कही थी। पर आज भी उतना ही प्रासांगिक है, जितना यह पहले था। बल्कि यह पहले की अपेक्षा आज अधिक प्रासंगिक है। जैसे-जैसे हमारा समाज तरक्की करता जाएगा, इसकी प्रासंगिकता भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। आज जो हमारे बुद्धिजीवी वर्ग की जो हालत है, इससे तो मुझे कम से कम पक्का यकीन होता है। लगभग सभी बुद्धिजीवी अपने चेला-चपाटे बनाते हैं। कोई छोटा भी अवसर मिलता है तो सबसे पहले अपने करीबी को ही सत्ता की कुर्सी पर बिठाते हैं। भले ही उससे ज्यादा योग्य व्यक्ति क्यों न धूल फांकता रहे। कहानी यहीं नहीं रूकती....यह तो बस ट्रेलर है, पूरी फिल्म तो हम सभी को मालूम ही है...

मेरी छोटी सी तमन्ना

लीक से हटकर सोचना क्या होता है? शायद आम लोग जो सोचते हैं, उससे अलग सोच रखना। या बदलते जमाने के हिसाब से सोचना। यह भी कह सकते हैं कि ऐसी सोच जो दूसरों के पास न हो। अलग-अलग लोगों के लिए यह अलग-अलग बात हो सकती है। लेकिन मैं इनमें किसी पर भी सही नहीं ठहरता हूं। अलग सोचना क्या होता है, यही मुझे समझ में नहीं आया। इतना मैं जानता हूं कि कुछ ऐसा सोचें जो दूसरों को हैरत में डाल दे कि वाह क्या आइडिया है। लेकिन मैं कभी सोच ही नहीं पाया। यानी जमाने के हिसाब से आगे कभी बढ़ ही नहीं पाया। लोग दस कदम आगे बढ़ाते हैं तो मैं बस एक। मुझे हर काम परफेक्शन से करना पसंद है, पर कभी हो नहीं पाता। इसका समाधान मैं कैसे नकालूं। कैसे खुद को समझाऊं। मुझे मालूम है इसके लिए मेहनत की जरूरत है। अथक और लगातार मेहनत करने की जरूरत है। मैं कोशिश करता हूं, पर मेहनत कर नहीं पाता हूं। हमेशा ज्ञान बघारता रहता हूं। मैंने ये किया, वो किया। पर कभी कॉन्फिडेंस से कह नहीं पाया कि ये मैंने किया है...क्रॉस क्वेश्चन करने पर घबरा जाता हूं। अपनी बात कभी डिफेंड ही नहीं कर पाया। सोचता हूं खूब पढ़ू, खुद को साबित करूं, सबसे बेस्ट बनकर दिखाऊं। पर कैसे? केवल सोचने से तो होता नहीं। करना पड़ता है, नहीं तो सब किया धरा रह जाता है। पढ़ना चाहता हूं, पर समझ में नहीं आता क्या पढ़ूं। पढ़ने बैठता भी हूं तो दिमाग इन बातों में घूमने लगता है कि बहुत कुछ पढ़ना है, इसी में सर भारी होने लगता है, दिमाग ख्यालों की दुनिया में गोते लगाने लगता है और या तो नींद की वजह से या तनाव की वजह से किताबें हाथों से दूर हो जाती हैं। इस तरह एक दिन बीत जाता है। दूसरा दिन बीतता है। फिर यही ख्याल आता है कि खूब पढ़ूंगा। सबसे बेस्ट बनूंगा। मेहनत करूंगा। पर एकबार फिर वही किस्सा होता है। नींद आती है या ख्यालों की दुनिया में गोते लगाने के बाद कुछ भी हाथ नहीं लगता है। इस तरह साल के बाद साल बीत जाता है। मेरे बेस्ट बनने की तमन्ना धरी की धरी रह जाती है।

होली, समानता का त्योहार और भंग

होली यानी रंगों का उत्सव। हरा-नीला-पीला न जाने कितने रंगों से सराबोर लोग। हर किसी के चेहरे पर रंगों की चमक। एक ही रंग में रंगे लोग। एक तरह से कहें कि दुनिया में रंग के धार पर जो भेदभाव है, उसका सबसे बेहतरीन निराकरण है, होली। किसी गोरे के दिल में न तो सुपीरियर होने का ख्याल आएगा न ही किसी काले या सांवले को इंफीरियरीटी कॉम्प्लेक्स होगी। सभी एक ही रंग में रंगे हुए। यानी विश्व समानता का अद्भुत त्योहार है होली।
इसके बाद आते हैं, होली के हुड़दंग पर। भंग। जी हां, यदि भंग का सेवन आपने न किया तो होली का मजा बेमजा ही समझिए। पर इसमें भी एक पेंच है। भंग की क्वालिटी। अपनी रचना राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल जी ने भंग की तारीफ कुछ यूं की है....जरा ध्यान से गौर फरमाइएगा, भंग पीनेवालों में भंग पीसना भी एक कला है, कविता है, करतब है, रस्म है। वैसे टके की पत्ती को चबाकर ऊपर से पानी पी लिया जाए तो अच्छा-खासा नशा आ जाएगा, पर यह नशेबाजी सस्ती है। आदर्श स्थिति तो यह है कि पत्ती के साथ बादाम, पिस्ता, गुलकंद, दूध-मलाई आदि का प्रयोग किया जाए। भंग को इतना पीसा जाए कि लोढ़ा और सिल चिपककर एक हो जाएं। पीने के पहले शंकर भगवान की तारीफ में छंद सुनाए जाएं और इस भंग पीने की कार्रवाई को व्यक्तिगत न बनाकर उसे सामूहिक रूप दिया जाए। बात व्यंग्यात्मक है, पर है सौ टका सही। बुरा न मानो होली है...........