लॉकडाउन: छबू मंडल की मौत सुसाइड नहीं, हत्या है! और, जिम्मेदार यह सरकार है


17 अप्रैल को उत्तर प्रदेश से लगभग 250 बसें राजस्थान के कोटा में पहुंचती। यह बस उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार की ओर से कोटा में फंसे लगभग 9,000 छात्रों को लाने के लिए भेजी गई। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल के भी स्टूडेंट्स कोटा के विभिन्न कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई कर रहे हैं। अचानाक लॉकडाउन होने से ये स्टूडेंट्स यहां लंबे समय से फंसे हुए हैं। लेकिन बिहार सरकार इन स्टूडेंट्स को अपने यहां बुलाने पर राजी नहीं हुई। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने योगी सरकार के कदम निशाना भी साधा कि यह लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन है। लेकिन नियमों को कौन मानता है। जब उत्तराखंड से 1800 गुजरातियों को बसों से भेजा जा सकता है, तो यह तो कुछ नहीं है। सारे कायदे-कानून सिर्फ अमीरों के लिए हैं और मजदूरों के लिए लाठियां, भूख, गरीबी, बेरोजगारी और अंत में मौत। मौत इसलिए कि यही सच्चाई है।
छबू मंडल की पत्नी और उनके बच्चे। Photo: Indian Express
इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर है। फ्रंट पेज पर। बिहार के एक प्रवासी शख्स की। 17 अप्रैल की बात है। बिहार के 35 वर्षीय छबू मंडल गुड़गांव में एक पेंटर (चित्रकार नहीं, घरों लंबी-लंबी इमारतों के बनने के बाद उन्हें रंगने का काम) के रूप में काम करते थे। छबू मंडल गुड़गांव में अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ रहते थे। उनका सबसे छोटा बच्चा सिर्फ पांच महीने का ही था। उन्हें मजबूरन अपना फोन 2,500 रुपये में बेचना पड़ा, ताकि परिवार को खिलाने के लिए कुछ राशन खरीद सकें। उस पैसे से उन्होंने एक पंखा भी खरीदा।
जब वह राशन का सामान लेकर घर लौटे, तो उसकी पत्नी बेहद पूनम खुश थी, क्योंकि घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। इससे पहले भी उनका परिवार लोगों द्वारा मुफ्त में बांटे जा रहे खाने पर ही गुजर-बसर कर रहा था। या फिर उनके पड़ोसी उन्हें कुछ दे देते थे। खाना बनाने से पहले छबू मंडल की पत्नी वॉशरूम जाती हैं। उनकी मां बच्चों को लेकर बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं। जब उनका परिवार बाहर होता है, तो मंडल अपने झोपड़ीनुमा घर का दरवाजा बंद करते हैं और घर के अंदर पंखे लटककर खुदकुशी कर लेते हैं। इंडियन एक्सप्रेस से उनकी पत्नी पूनम कहती हैं, लॉकडाउन के बाद से ही वह बहुत परेशान थे। हम हर रोज दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे थे। न काम था और न पैसा। हम पूरी तरह से लोगों की ओर से बांटे जाने वाले खाने पर निर्भर थे। लेकिन, यह भी हमें रोज नहीं मिलता था।
गुड़गांव की पुलिस का कहना है कि छबू मंडल "मानसिक रूप से परेशान" था।  जिला प्रशासन के अधिकारियों ने भी 35 वर्षीय के "मानसिक रूप से परेशान" होने की बात पर जोर दिया। छबू मंडल के इलाके में ही रहने वाले फिरजो भी बिहार के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि लोग बाहर निकलने से डर रहे हैं, क्योंकि पुलिस उनके साथ बेरहमी से पेश आ रही है। लेकिन क्या आपको पुलिस का ऊंचे ओहदों या फिर कोटा की तरह दूसरे इलाकों के लोगों के साथ जी-अदबी से पेश आती दिखी नहीं। वह तो लॉकडाउन की वजह से भूखे मरने, नौकरी गंवाने वालों की मौत, मजदूरों के पलायन करने से होने वाली मौतों को मानसिक रूप से परेशान बताने लगती है। उससे पहले जो मन आए और जिस तरह इच्छा उस तरह से पेश आती है।
बतौर इंडियन एक्सप्रेस छबू मंडल करीब 15 साल पहले बिहार के मधेपुरा से गुड़गांव आए थे। 10 साल पहले उनकी शादी हुई थी और उसके बाद अपने परिवार को भी गुड़गांव लेकर आ गए। पिछले कुछ वर्षों से वे गुड़गांव से सरस्वती कुंज इलाके में रहते थे। दो झोपड़ी किराए पर ली थी, जिसके लिए उन्हें 1500 रुपये महीने देने होते थे। पहले प्रदूषण की वजह से कंस्ट्रक्शन का काम बंद हुआ, तो आमदनी भी बंद। अब लॉकडाउन से सबकुछ बंद हुआ, तो फिर सब गया।
सरकार के दावे बड़े-बड़े कि इस लॉकडाउन में अपने किराए पर रहने वालों की मदद करें। कुछ महीनों का माफ करें या किसी भी तरह से मदद करें, लेकिन हो उल्टा रहा है। मंडल की पत्नी पूनम कहती हैं,
इस संकट में मकान मालिक की तरफ से एक-दो बार किराए के लिए पैसे की मांग की गई, जिससे उन पर दबाव बढ़ा। वह कहती हैं, एक दिन मेरे पति ने फैसला किया कि वह अपना फोन बेच देंगे, जिसे उन्होंने 10 हजार रुपये में खरीदा था, ताकि राशन के लिए कुछ सामान खरीदा जा सके।
मंडल के परिवार ने उनका अंतिम संस्कार गुड़गांव में ही 17 अप्रैल को किया। इसके लिए भी अपने पड़ोसियों, और दान के पैसे पर निर्भर रहना पड़ा। छबू मंडल की पत्नी कहती हैं, हम तो हमें इसी हकीकत के साथ रहना पड़ेगा कि अब परिवार में कमाने वाला कोई नहीं रहा। शायद मैं दूसरों के घरों में मेड का काम कर लूं, लेकिन अभी भी लॉकडाउन खत्म होने में 15 दिन बचे हैं।
यह लॉकडाउन में होने वाली कोई पहली मौत नहीं है। यह मौत कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से भी नहीं हुई है। यह मौत हुई सरकार की मनमानी नीतियों और छबू मंडल जैसे लोगों को बिना ध्यान में रखे लॉकडाउन लागू करने की वजह से हुई है। यह सिर्फ छबू मंडल की मौत नहीं है। यह भारत की आत्मा की मौत है, जिसकी हिफाजत इस देश के हुक्मरान नहीं कर सकते। यह किसकी सरकार है, जिसका मुखिया खुद को प्रधानसेवक कहता है। लेकिन इसी प्रधानसेवक की पार्टी का मुख्यमंत्री उसकी बातों की धज्जियां उड़ाते हुए 250 बसों को भेजता है, ताकि फंसे लोगों को लाया जा सके। फिर उन लाखों मजदूरों ने कौन-सा अपराध किया था, जिसके साथ भेड़-बकरियों की तरह पेश आया गया। छबू मंडल जैसे लोगों ने क्या अपराध किया था? पीएम केयर्स फंड का पैसा किसके लिए है? छबू मंडल की मौत कोई सुसाइड नहीं, बल्कि हत्या है। इस हत्या की जिम्मेदार इस सरकार की ग़ैर-जिम्मेदाराना सोच और नीतियां हैं। वह इससे बच नहीं सकती।

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