कोरोना वायरस, हिंदू-मुसलमान और श्वेत-अश्वेत


कोरोना वायरस। पूरी दुनिया इस महामारी से लड़ रही है। लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी लड़ाई भी चल रही है। सांप्रदायिकता की। नस्लवाद की। श्वेत-अश्वेत की और हिंदू-मुसलमान की। भारत में जब तक हजरत निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के मामला सामने नहीं आया था, तब तक कोरोना से हमारी जंग सही चल रही थी। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने दिल्ली दंगों के बाद हिंदू-मुसलमान बंद ही किया था कि यह एक नई महामारी आ गई। उनकी मेहनत और ऊर्जा वैसी नहीं दिख रही थी, क्योंकि देश एकजुट होकर इस वैश्विक आपदा का सामना कर रहा था। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम की मीडिया तक में हम एकजुट होकर लड़ रहे थे, लेकिन तभी नया मसाला मिला। तबलीगी जमात का। यहीं से कोरोना से जंग ने रुख मोड़ लिया।
अमेरिका में बंदूक की दुकान पर कतार में लोग। फोटोः इंटरनेट
पूछा जाने लगा कि आख़िर यही 'चंद लोग' हमेशा 'अल्लाहु अकबर' कह कर क्यों फट जाते हैं? कश्मीर से लेकर गाजा तक और नाइजीरिया से लेकर सीरिया तक, यही 'चंद लोग' दशकों से कत्लेआम क्यों मचा रहे? अगर आप कहते हैं कि कौम या मजहब को गाली मत दो तो आपको एक और सवाल का जवाब देना पड़ेगा। "जमात वालों ने अपनी करतूतों से बिरादरों के लिए एक नया शब्द गढ़ा है- थूकलमान। इसकी कड़ी निंदा करता हूं।अब थूकलमान शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है, आपको समझ आ रहा होगा। हालांकि, जिसके लिए और जिस संदर्भ में किया गया, उसकी पुष्टि हो नहीं पाई। आज चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी लगे हैं। फिर अस्पतालों से ऐसे वीडियो नहीं आए। ख़ैर मेरी चिंता यह नहीं है।
दरअसल, दिक्कत यह नहीं है कि यह सब भारत में हो रहा है। पूरी दुनिया में यही खेल चल रहा है। भारत में हिंदू-मुसलमान चल रहा है, तो अमेरिका में ब्लैक और व्हाइट यानी अश्वेत और श्वेत। हमारे यहां सांप्रदायिकता है, तो अमेरिका में भी एक तरह सांप्रदायिकता है, जिसे रेसिज्म यानी नस्लवाद कहते हैं। वह कैसे आइए देखिए। आज अमेरिका कोरोना वायरस की वजह से सबसे अधिक प्रभावित देश है। यहां (भारतीय समय के अनुसार रात 12:56 तक 24 घंटे में 1529 से ज्य़ादा मौतें हुईं, जबकि कुल मौत 12,400 वहीं, कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 3 लाख 90 हजार तक पहुंच गई। इतनी मौतों और संक्रमण के लोगों में भय सताने लगा है कि अगर राशन और खाने-पीने का सामान खत्म हुआ, तो फिर अराजकता की स्थित हो जाएगी। ऐसे में लोग गन कल्चर यानी बंदूक का रुख कर चुके हैं। यहां बंदूकों की दुकानों पर लोगों की कतारें देखी जा सकती हैं। यह खौफ खासतौर पर अफ्रीकी और एशियाई मूल के अमेरिकियों में देखा जा रहा है।
कोरोना संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित इलाकों कैलिफोर्निया,  न्यू यॉर्क और वॉशिंगटन में बंदूक और हथियारों की बिक्री में भारी वृद्धि देखी गई है। ऑनलाइन हथियार बेचने वाली दुकान एम्मो डॉट कॉम के मुताबिक, 23 फरवरी के बाद से बिक्री में 68 प्रतिशत की तेजी आई है। कुछ खरीदारों ने बताया कि उन्हें डर है कि कामबंदी के हालात में देश में जरूरी वस्तुओं की कमी आ सकती है। इससे भोजन,  दवा आदि के लिए लूटपाट मच सकती है। ऐसी स्थिति में परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार ही विकल्प होंगे। कई राज्यों में टॉइलेट पेपर से ज्यादा मांग बंदूकों और कारतूसों की हो गई। गन स्टोर्स के बाहर ग्राहकों की वैसे ही लाइन लगने लगी जैसे कि सुपर मार्केट्स में लग रही थी। 20 मार्च को ओरेगन पुलिस ने इंस्टेंट चेक सिस्टम के तहत 3189 आवेदन क्लियर किए। इलिनोय राज्य में भी पांच दिन में बंदूक खरीदने की 19 हजार अर्ज़ियां आ गईं। तुलना करें तो पिछले साल 9 से 20 मार्च के बीच बंदूक खरीदने के 17136 आवेदन आए थे, जबकि इस साल इन्हीं दिनों में 35473 आवेदन आए। कैलिफोर्निया में तो बंदूकों की बिक्री 800 फीसदी बढ़ गई है।
इसी बीच नस्लवाद भी बढ़ने लगा है। कुछ वैसे ही जैसे हमारे यहां एक खास वर्ग इन दिनों हावी है। उसी तरह अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के श्वेत-अश्वेत खाई बढ़ी है। एक रिपोर्ट की मानें, तो ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के दो महीने के भीतर ही 1052 मामले नस्लवाद के दर्ज किए गए। यह मौजूदा समय में भी दिख रहा है, जब कोरोना महामारी की वजह से अमेरिका में अनिश्चितता तेजी से बढ़ी है और लोग अपनी सुरक्षा के लिए बंदूकों की दुकान पर कतारबद्ध होने लगे हैं, जिसमें अधिकांश अश्वेत अमेरिकी हैं। (अगले लेख में विस्तार से...)

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