यह कैसा लॉकडाउन, किसकी सरकार...किसी के लिए स्पेशल फ्लाइट, किसी को लाठी और मार


22 मार्च को जनता कर्फ्यू। फिर 24 मार्च की आधी रात से पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन। उसके बाद पूरे देश से प्रवासी मजदूरों का अपने-अपने गृह राज्यों और घरों के लिए पलायन शुरू हो गया। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के हजारों दिहाड़ी मजदूर कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद बस पकड़ने के लिए आनंद विहार, गाजीपुर और गाजियाबाद पहुंचे। इनमें से किसी को उत्तर प्रदेश जाना था, तो किसी को बिहार। कई राजस्थान जाना चाहते थे, तो कई उत्तराखंड। कोई राजस्थान के जैसलमेर से 22 दिनों में 1400 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बिहार के गोपालगंज पहुंचता है, तो कोई 800 किलोमीटर साइकल चलाकर बनारस पहुंचता है।
मुंबई के बांद्रा में जुटी भीड़। फोटोः इंटरनेट
इस तरह गुजरात से राजस्थान, महाराष्ट्र से गुजरात और उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सीमा पर भी ऐसे ही हजारों दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती थी, तो कर्नाटक में भी यही हाल था। पूरे देश का कमोबेश यही नजरा। हर तरफ से लोग इस लॉकडाउन के बाद अपने घर जाना चाहते थे। इसकी वजह यह थी कि लॉकडाउन से सभी का कामधंधा, रोजी-रोटी छीन लिया था। उनके पास न रहने को स्थायी ठिकाना और न खाने का पुख्ता इंतजाम। सरकार और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए, लेकिन क्या वह काफी था या नहीं, इस पर सवाल बाद में। हालांकि, आप खुद इस सवाल का जवाब तलाशने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
अब 14 अप्रैल को एक नया मसला आया। ख़बर यह है कि दिल्ली के आनंद विहार की तरह की मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर हजारों प्रवासी मजदूरों इकट्ठा हो गए। 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने का ऐलान किया। हाराष्ट्र में 30 अप्रैल तक जारी लॉकडाउन के बावजूद बांद्रा स्टेशन पर हजारों प्रवासियों की भीड़ जुट गई। बताया जा रहा है कि कई लोगों के पास बांद्रा स्टेशन से ट्रेन खुलने का मैसेज मिला था। इसके बाद हजारों की भीड़ जुट गई, क्योंकि सभी लोगों को अपने घर जाना था। अब इस पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह साजिश के तहत किया गया? क्या साजिश के तहत हजारों की तादाद में लोग रेलवे स्टेशन पर जुट गए? दिल्ली के निजमुद्दीन में तब्लीगी जमात का मामला सामने आने के बाद वैसे भी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ हमारी लड़ी लड़ाई हिंदू-मुसलमान वाली कोरोना फाइट में तब्दील हो गई है। अगर आप न्यूज़ चैनल देखते हैं या ट्विटर फॉलो करते हैं, तो कई वरिष्ठ संपादकों और मीडिया समूह के मालिकों के ट्वीट से आपको इसका अंदाजा लग जाएगा। एक संपादक हैं रजत शर्मा। उन्होंने ट्वीट किया, बांद्रा में जामा मस्जिद के बाहर इतनी बड़ी संख्या में लोगों का इकट्ठा चिंता की बात है। इन्हें किसने बुलाया? अगर ये लोग घर वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे तो उनके हाथों में सामान क्यों नहीं था?’ अब इस ट्वीट का मकसद आप समझते रहिए। सुशांत सिन्हा भी एक पत्रकार हैं। एक कहावत है, नया-नया मुल्ला प्याज ख़ूब खाता है, तो यह साहब उसी बिरादरी के हैं। इन्होंने ट्वीट किया, साल में एक बार छठ/दुर्गा पूजा में घर जा पाने वाले बिहार/बंगाल के मजदूरों को 21 दिन के लॉक डाउन में घर की इतनी याद सताने लगी कि डिप्रेशन हो गया। एक से एक कहानी ला रहे हैं लोग। गजबे है।
ऐसे कई पत्रकार हैं, जो सरकार की जगह विपक्ष और जनता से ही सवाल करने का साहस कर पाते हैं। यह पत्रकारिता के स्वर्णिम काल के चंद लम्हों में एक है। ऐसा इसलिए कि अभी तक एक भी पत्रकार सरकार से यह सवाल करने की हिम्मत नहीं कर पाया कि जब विदेश में फंसे हजारों भारतीयों को स्पेशल फ्लाइट से भारत यानी देश लाया जा सकता है, तो देश में ही फंसे लाखों प्रवासियों को उनके गृह राज्यों तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता है? जबकि, यह तो पूरी तरह सच है कि कोरोना वायरस का संक्रमण भारत से शुरू नहीं हुआ। विदेशों से लोग आते गए और संक्रमण फैलता गया। सोशल मीडिया पर एक मीम भी चला कि पासपोर्ट ने खता की और भुगत राशन कार्ड रहा है। यह इस देश की सच्चाई भी है। विदेशों में रहने वाले लोग/एनआरआई भारत में रहने वाले इन मजदूर तबके को किन नजरों से देखते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। जब खुद की जान पर आई, तो स्पेशल विमानों से कोरोना का संक्रमण लेकर देश में आते गए। उनकी सज़ा आज पूरा देश और यहां के दिहाड़ी मजदूर, गरीब, फुटपाथ पर रहने वाले लोग और न जाने कितने वंचित भुगत रहे हैं। फिर भी सरकार को इनकी फिक्र नहीं है। आख़िर क्यों इन लोगों को अपने गृह राज्य भेजने का इंतजाम सरकार नहीं करती?
कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और बात-बात में सेकुलरिज्म को गाली देने वाले अंधभक्तों का तर्क है कि पूरे देश में लॉकडाउन है, अगर इन्हें भेजा गया तो संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा। इनके लिए सरकार हर तरह से रहने-खाने का इंतजाम कर रही है। इस तरह के सवाल करने वालों में ट्विटर पर खुद को बिहार का बीजेपी प्रवक्त बतलाने वाले निखिल आनंद भी हैं। तो क्या विदेशों से जिन लोगों को सरकार स्पेशल फ्लाइट से देश लेकर आई है, उनके लिए वहां इतजाम नहीं था। था, लेकिन उन्हें तो यहां आना था। दो वक़्त की रोटी तो विदेश में भी भारतीयों को मिल जाती। फिर विशेष विमान भेजकर क्यों निकाला? लॉकडाउन में ही उत्तराखंड की लग्जरी बसें 1800 गुजरातियों पर्यटकों को घर तक छोड़कर आईं। लेकिन मज़दूर जहां हैं, वहीं रहें! ऐसा क्यों?
क्या ग़रीब प्रवासी मजदूर को भी उसी तरह का सम्मान नहीं मिलना चाहिए, जो विदेशों में रहने वाले भारतीय को स्पेशल विमान से लाकर दिया गया। जबकि विदेशों में रहने और जाने वाले ये भारतीय ही देश में कोरोना वायरस के संक्रमण की असल जड़ और वजह हैं। ऐसे में आप एक वर्ग के लिए सम्मान देने वाले और दूसरे वर्ग के लिए अहंकारी नहीं बन सकते। अगर सरकार के नैतिकता है, तो इन सभी दिहाड़ी मजदूरों और गरीबों को उसी सम्मान से उनके घर या गृह राज्य पहुंचाना चाहिए। किसी तरह की प्राथमिकता नहीं और न ही किसी तरह का भेदभाव होना चाहिए।

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