लोकतंत्र को लगा कोरोना रोग, हुआ वायरस से संक्रमित


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कोरोना वायरस का शुक्रिया! मुझे पता है कि ऐसा नहीं कहना चाहिए, लेकिन मौजूदा कोरोना वायरस महामारी में कुछ छोटी-छोटी खुशियां हैं। कुछ इन्हीं शब्दों में रूस का एक शख्स अपनी भावनाओं को ज़ाहिर करता है। स्वाभाविक सी बात है कि इसकी वजहें भी होंगी। दरअसल, रूस में व्लादिमीर पुतिन वर्ष 2000 से ही सत्ता में हैं। राष्ट्रपति का उनका मौजूदा कार्यकाल 2024 में खत्म होने वाला है। लेकिन पुतिन ने 2024 के बाद भी 12 साल तक पद पर बने रहने का संवैधानिक जुगाड़ कर लिया। बस एक पेच बाकी रह गया था। रूस की संसद से पुतिन के 2036 तक सत्ता में बने रहने के लिए विधेयक पास हो चुका है। बस जनमत संग्रह कराना बाकी रह गया, जो 22 अप्रैल को होने वाला था। लेकिन कोरोना वायरस महामारी की वजह से इसे फिलहाल टाल दिया गया है। पिछले 20 वर्षों से पुतिन ही रूस के मालिक बने बैठे हैं। कभी संविधान का सहारा लेकर, तो कभी संविधान संशोधन के जरिए। सवाल उठते हैं, तो विपक्ष की आवाज का गला घोंट दिया जाता है।
कुछ इसी तरह का हाल या थोड़ा मुस्तफा कमाल पाशा के देश तुर्की का है। दरअसल, यह हक़ीकत है कि मौजूदा समय में सबसे बड़ा ख़तरा लोकतंत्र पर मंडरा रहा है। कोरोना वायरस ने इस ख़तरे को संजीवनी दी है या कहें कि लोकतंत्र भी कोरोना वायरस से संक्रमित हो गया है। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश की तमाम खूबियां इस महामारी की चपेट में आ रही हैं या आ चुकी हैं। ऐसा इसलिए कि इस महामारी की वजह से अधिकांश देशों को मनमानी करने की छूट मिल चुकी है। उन पर नजर रखने या सवाल करने पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं।
भारत में ही एक उदाहरण देता हूं कि मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष के होते हुए पीएम केयर्स नाम से एक अलग ट्रस्ट बना लिया। अभी तक आपदा या महामारी के लिए प्रधानमंत्रा राहत कोष में ही चंदा या दान दिया जाता था, लेकिन अब पीएम केयर्स। लेकिन इसकी पारदर्शिता पर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। जब विपक्ष की तरफ से इसकी राशि प्रधानमंत्री राहत कोष में ट्रांसफर करने की मांग की गई, तो सिरे से खारिज कर दिया गया। अब ख़बर है कि पीएम केयर्स के फंड का सरकार ऑडिट भी नहीं करवाएगी। हालांकि, पहले प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का भी नहीं होता था। लेकिन सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का भी नहीं होता था, तो पीएम केयर्स फंड का भी क्यों नहीं होना चाहिए? अगर नहीं होना चाहिए, तो एक कोष के होते दूसरे की जरूरत क्यों हैं? यहीं से मंशा पर सवाल उठता है।
अब लौटते हैं यूरोपीय देशों की तरफ जहां कोरोना वायरस के साथ-साथ लोकतंत्र का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। पूरे यूरोप में चुनावों को स्थगित किया जा रहा है। अदालतों ने बेहद अहम केसों को छोड़कर बाकी की सुनवाई ही बंद कर दी है। हंगरी में सरकार की तरफ से उठाए गए कदमों ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। हंगरी की सरकार ने कोरोना वायरस की आड़ में ऐसा प्रस्ताव पास किया है या करने वाला है, जिससे जब तक कोरोना महामारी के कारण आपातकाल लगा रहेगा, तब तक मौजूदा सरकार की सत्ता में बनी रहेगी। कोई चुनाव नहीं होगा। यानी हंगरी की सरकार आपातकालीन स्थिति के तहत अनिश्चितकाल तक शासन करेगी।
मौजूदा हालात में यूरोप के कम-से-कम 15 देशों ने आपातकाल की घोषणा की है। कुछ देशों ने आपातकाल नहीं लगाया, लेकिन जनता पर पाबंदी को लेकर सख्त कदम उटाए हैं। पोलैंड में सरकार आपातकाल लागू करने को लेकर अड़ी हुई है। इसकी वजह भी है। यहां 10 मई को राष्ट्रपति का चुनाव होना है। अगर आपातकाल लगता है, तो चुनाव को स्वाभाविक रूप से टाल दिया जाएगा। इसी तरह फिलीपींस की संसद से एक कानून पास किया गया, जिसके तहत राष्ट्रपति रॉड्रिगो डुत्रेतो को आपातकाल में असीमित अधिकार दिया गया है। कंबोडिया में एक कानून का मसौदा बनाया गया है। यह भी राष्ट्रीय आपातकाल से जुड़ा है। अगर कानून की शक्ल ले लेता है, तो सरकार को बेइंतहा मार्शल पावर मिल जाएगा और वहां के नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों में व्यापक कटौती की जाएगी।
उधर, इजरायल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का सोशल डिस्टेंसिंग वाला प्रदर्शन जारी है, लेकिन नेतन्याहू किसी तरह सत्ता पर फिर से कब्जा करने में सफल दिख रहे हैं। अमेरिका पहले ही स्टेट लेवल प्रेसिडेंशियल प्राइमरी चुनाव को रद्द कर चुका था।
अभी आने वाले दिनों में आइवरी कोस्ट, मलावी, मंगोलिया, डॉमिनिकन रिपब्लिक जैसे कई देशों में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन यहां भी इसी तरह का ख़तरा मंडरा रहा है।  
एशियाई देशों में बात करें, तो श्रीलंका में भी कोरोना वायरस की वजह से संसदीय चुनाव दो महीने के लिए स्थगित कर दिए गए हैं। राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने निर्धारित समय से छह महीने पहले 2 मार्च को संसद भंग कर दी थी। तब उन्होंने 25 अप्रैल को मिडटर्म चुनाव कराने की बात कही थी। अब नई तारीख 20 जून की दी गई है। आपको बता दें कि इन्हीं गोटबाया राजपक्षे ने अपने भाई महिंदा राजपक्षा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।
कुल मिलाकर हक़ीकत यही है कि कोरोना वायरस ने न सिर्फ इंसानों का कत्लेआम किया, बल्कि यह लोकतंत्र का दमन करने के लिए तैयार है। यह दमन वायरस नहीं, बल्कि इसकी आड़ में तानाशाही सोच वाले नेता/सरकारें कर रही हैं। चाहे यूरोपीय देश हों, रूस या फिर भारत की मोदी सरकार... तो तैयार रहिए कोरोना की जंग के बाद लोकतंत्र की अस्थियां समेटने के लिए...

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