यह भारत
सवा अरब भारतीयों का है। इसी सवा अरब भारतीयों पर कोरोना वायरस महामारी का संकट भी
है। अब वैश्विक संकट है, तो दोष सरकार पर नहीं ही लगाया जा सकता है। लेकिन इस संकट
के समय में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, उसके लिए सरकार जरूर जिम्मेदार है।
मीडिया
हाउस अल-जजीरा की ख़बर है कि गुजरात के अहमदाबाद के सरकारी हॉस्पिटल में कोरोना
मरीजों का इलाज हिंदू मरीज और मुस्लिम मरीज के आधार पर किया जा रहा है। गुजरात के
इस सरकारी अस्पताल में कोरोना के हिंदू मरीजों के लिए अलग वॉर्ड है, तो मुसलमानों
के लिए अलग। दावा यह कि ऐसा करने के लिए सरकार से आदेश आया है।आमतौर पर
किसी भी अस्पताल में किसी भी वॉर्ड को पुरुष और महिला वॉर्ड के तौर पर बांटा जाता
है। लेकिन, यहां के सरकारी अस्पताल में मुस्लिम वॉर्ड और हिंदू वॉर्ड के तौर पर
बांटा गया है, ताकि कोरोना वायरस के मरीजों का इलाज किया जा सके। इंडियन एक्सप्रेस
से अहमदाबाद सिविल हॉस्पिटल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉक्टर गुनवंत एच. राठौड़ कहते
हैं, ‘यह सरकार
का फैसला है और आप सरकार से ही इस बार में पूछिए।’ यह उसी गुजरात के हॉस्पिटल की कहानी
है, जहां 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी 2001 के बाद से लगातार
13 साल तक मुख्यमंत्री थे।
अब कहानी को थोड़ा मोड़ते हैं। बात 12 अप्रैल की है। तमिलनाडु के मदुरै में जलीकट्टू और धार्मिक यात्राओं में शामिल होने वाले एक बैल के अंतिम संस्कार में हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ जुट गई। 15 अप्रैल की बात है। मुंबई के बांद्रा की ही तरह दिल्ली में हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर यमुना किनारे जमा हो गए। राजस्थान के जैसलमेर के पोखरण क्षेत्र में भी मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन जैसे हालात पैदा हो गए। देश में लॉकडाउन को फिर से 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूर यहां जुटने लगे। कुछ ही समय में सैकड़ों प्रवासी मजदूर परिवार सहित सड़कों पर उतर आए। इनमें अधिकांश यूपी और बिहार राज्यों के कामगार थे, जिनकी मांग थी कि उन्हें अपने-अपने राज्य लौटने की इजाजत दी जाए। भले ही ट्रेन या बस से नहीं, तो पैदल ही, लेकिन जाने दिया जाए।
अब कहानी को थोड़ा मोड़ते हैं। बात 12 अप्रैल की है। तमिलनाडु के मदुरै में जलीकट्टू और धार्मिक यात्राओं में शामिल होने वाले एक बैल के अंतिम संस्कार में हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ जुट गई। 15 अप्रैल की बात है। मुंबई के बांद्रा की ही तरह दिल्ली में हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर यमुना किनारे जमा हो गए। राजस्थान के जैसलमेर के पोखरण क्षेत्र में भी मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन जैसे हालात पैदा हो गए। देश में लॉकडाउन को फिर से 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूर यहां जुटने लगे। कुछ ही समय में सैकड़ों प्रवासी मजदूर परिवार सहित सड़कों पर उतर आए। इनमें अधिकांश यूपी और बिहार राज्यों के कामगार थे, जिनकी मांग थी कि उन्हें अपने-अपने राज्य लौटने की इजाजत दी जाए। भले ही ट्रेन या बस से नहीं, तो पैदल ही, लेकिन जाने दिया जाए।
उधर, गुजरात के सूरत में 14 अप्रैल के बाद 15 अप्रैल
को भी लगातार दूसरे दिन प्रवासी मजदूरों की भीड़ सड़कों पर नजर आई। दरअसल, सूरत के
कारखानों में काम करने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे
राज्यों के हजारों प्रवासी यहां फंस गए हैं। पर चर्चा और बहस का
केंद्र मुरादाबाद और मुसलमान। तो फिर पंजाब में निहंगों का हमला क्यों नहीं? हालांकि, यह सही है कि एक
हिंसा का जवाब दूसरी हिंसा नहीं है। फिर भी बहस का केंद्र घूमफिर कर मुसलमान ही
क्यों? यह सच है कि चंद
मुसलमानों की वजह से साख का संकट गहरा रहा है, लेकिन यही बात सरकार पर भी तो लागू
होती है।
Photo: Internet |
महाराष्ट्र में लोगों को सड़कों पर आने के लिए उकसाने वाला
विनय दुबे क्यों नहीं मीडिया के बहस के केंद्र में आता है। क्यों नहीं विनय और
निहंग समुदाय की हिंसा के बाद इनके पूरे समुदाय पर सवाल उठने लगते है? क्यों फेसबुक से लेकर
ट्विटर तक पर एंटी मुसलमान विषय ट्रेंड करने लगते हैं? इसकी वजह भी है। वजह यह
है कि जब पहले से ही मन-मस्तिष्क में एजेंडा भरा हो, तो आपको सिर्फ वही दिखाई देता
है और उसे शह मिलती है सत्तारूढ़ सरकार से।
कुल मिलाकर कोरोनो वायरस महामारी के दौरान देश के हिंदुओं
और अल्पसंख्यक मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के बीच खाई बढ़ी ही है। कहां तो उम्मीद
थी कि इस संकट में महामारी के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर लड़ेगा। लेकिन, मीडिया और
कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और मुसलमान विरोधी या फिरकापरस्त तबके को ज़रा भी मौका
मिलता है, वह मुसलमानों के खिलाफ हो-हल्ला शुरू कर देता है। दरअसल, मोदी सरकार में
मुसलमानों का या उनके प्रति अविश्वास कुछ महीने पहले नागरिकता संशोधन कानून और फिर
एनआरसी की चर्चाओं को लेकर तेज हुआ। अभी तक आधिकारिक तौर पर कोरोना वायरस फैलने को
लेकर किसी धर्म को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। लेकिन दिल्ली के निजामुद्दीन से
तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद कई मुसलमानों को लगता है कि इस संक्रमण के
लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसे लेकर बेहद ही सनसनीखेज तरीके से
न्यूज चैनलों और अखबारों द्वारा खबरों की रिपोर्टिंग की गई। एक बहस शुरू की गई कि
देश में कोरोना फैलने की वजह मुसलमान ही हैं। फिर हिंदुत्व के कुछ झंडाबरदार नेता
भी इस बहस में कूद पड़े। सोशल मीडिया पर ‘कोरोना जिहाद’ ट्रेंड कराया जाने लगा।
तबलीगी जमात के कार्यक्रम से जुड़े करीब 1000 लोगों में कोरोना वायरस की पुष्टि
हुई। कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि चंद लोगों में यह गलतफहमी थी या फिर उनकी
एक सोच हो गई कि उनके मजहब में यह नहीं फैलेगा। यह भी कि कहीं उनके खिलाफ साजिश तो
नहीं। लेकिन, उनका यह भी कहना है कि इसे लेकर मस्जिदों से इस तरह की गलतफहमी दूर
करने की कोशिश भी हो रही थी।
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि मुसलमान इस तरह की सोच रखने लगे।
गुजरात के एक मुस्लिम नेता का कहना है कि सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति
मुसलमानों में गहरा अविश्वास है। वह बताते हैं, ‘इस तरह के लोगों को यह
समझाने में काफी कोशिश करनी पड़ी कि मेडिकल सुविधाओं और इलाज के लिए डॉक्युमेंट्स
की जरूरत पड़ती है।’
ऐसे में जब कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में स्वास्थ्यकर्मी
कोरोना के मामलों का पता लगाने गए, तो कुछ मुसलमानों को लगा कि यह अवैध प्रवासियों
का डेटा इकट्ठा करने की सरकारी कवायद है।
यह सिर्फ भारत में ही है कि अगर किसी समुदाय की वजह से
संक्रमण बढ़ रहे हैं, तो उसके खिलाफ एक पल में एक फौज खड़ी नजर आने लगती है। सिर्फ
भारत में ही है कि धर्म के आधार पर कोरोना से जंग लड़ी जा रही है। दक्षिण कोरिया
की राजधानी सियोल के शिनचोनजी चर्च के 61 साल महिला में कोरोना के लक्षण थे। वह इस
बात से अनजान रही और चर्च की सार्वजनिक बैठकों में शामिल होती रही और कोरोना
संक्रमण फैलता चला गया। बात 18 फरवरी की है। उस दिन महिला को कोरोना पॉज़िटिव पाया
गया। तब दक्षिण कोरिया में कोरोना वायरस के सिर्फ 31 मामले थे। 28 फरवरी को यह
संख्या 2000 से ज़्यादा हो गई थी।
इसी तरह फ्रांस के म्यूलहाउस शहर के एक चर्च में पांच दिनों
का सालाना कार्यक्रम हुआ, जिसमें यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के हजारों लोग शामिल हुए।
म्यूलहाउस शहर फ्रांस की सीमा को जर्मनी और स्विट्जरलैंड से जोड़ती है। इस सालाना धार्मिक
उत्सव में कोई कोरोना पॉजिटिव था, जिससे पूरे फ्रांस और अन्य देशों में कोरोना
फैला। करीब 2500 पॉजिटिव केस का लिंक इसी से जुड़ा पाया गया।
इस तरह के कई मामले हैं, जहां धार्मिक सभा या कार्यक्रमों
की वजह से कोरोना के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई। लेकिन किसी भी देश ने धर्म विशेष को
निशाना नहीं बनाया। लेकिन हमारे यहां क्या हो रहा है। हमारे एक साथी हैं मनीष। वह
लिखते हैं, ‘तबलीगी जमात के जिस मौलाना साद के बारे में पुलिस और मीडिया ने खबर उड़ाई कि
वह फरार है। पुलिस उसकी तलाश कर रही है। बाद में पता चला कि यह झूठ था और साद अपने
घर में आइसोलेशन में है। कोविड-19 टेस्ट में निगेटिव पाए जाने के बाद भी उसकी
गिरफ्तारी/हिरासत की कोई खबर नहीं आई है। उधर, दिल्ली के ही डिफेंस कॉलोनी में गार्ड मुस्तकीम के बारे में
भी यही खबर उड़ाई गई कि वह फरार है और पुलिस को उसकी तलाश है। बाद में पता चला कि
यह भी झूठ था और उसे उसके घर में ही क्वारंटीन/आइसोलेशन में रखा गया था और टेस्ट
में अब उसकी रिपोर्ट निगेटिव आई है। हां, रिपोर्ट आने से पहले ही उसके खिलाफ केस जरूर दर्ज हो गया।‘
सबसे बड़ी बात कि इन तमाम तरह के हथकंडों और सांप्रदायिक
ख़बरों को लेकर सरकारी सुस्ती और निष्क्रियता ही दिखती है।
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