कानू संन्याल और नक्सलवाद

कानू संन्याल ने मंगलवार को आत्म हत्या कर ली। इस बात पर यकीन नहीं हो रहा है। भारत में नक्सल मूवमेंट की नींव रखने वाला शख्स भला आत्महत्या कर ले, किसी को भला यकीन कैसे हो सकता है। संन्याल एक ऐसे क्रांति के जनक थे, जिसन भारत में कम्यूनिस्ट राजनीति की दशा और दिशा बदल कर रख दी। जब हम कानू संन्याल की बात करते हैं तो हमारे जेहन में सबसे पहला सवाल यही उठता है कि कौन थे कानू संन्याल? एक नजर यदि संन्याल 81 साल के जीवन इतिहास पर डालें तो सबसे पहली बात जो उनके बारे में कही जा सकती है, वह यह कि कानू संन्याल नक्सली आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में एक थे। कुछ यूं जिंदगी शुरू हुई थी संन्याल की।
साल 1932 में दार्जलिंग जिले के कुर्सियांग में एक शख्स का जन्म हुआ। यह आगे चलकर राजस्व विभाग में एक सामान्य कलर्क बना। लेकिन दरम्यान पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधान चंद्र रॉय को काला झंडा दिखाने के चलते इसे गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल इस शख्स ने भारत सरकार द्वारा कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का विरोध किय था। गिरफ्तारी के बाद संन्याल को जलपाईगुड़ी जेल में रखा गया। यहां इनकी मुलाकात सीपीआई के जिला सचिव सदस्य और भविष्य के कामरेड-इन-आर्म्स चारू मजूमदार से हुई। संन्याल जेल में मजूमदार की विचारधारा से बेहद प्रभावित हुए और छूटते ही उन्होंने सीपीआई की सदस्यता ले ली। आगे चलकर भारत-चीन के बीच हुए जंग को लेकर विवाद के बाद संन्याल सीपीआई-एम के साथ हो लिए। फिर संन्याल ने अपने वामपंथी क्रांतिकारी साथी चारू मजूमदार के साथ मिलकर 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन की बुनियाद रखी। हालांकि इन दोनों के सशस्त्र आंदोलन को प्रशासन ने बड़ी बेरहमी से महज चंद महीनो में ही कुचल दिया, लेकिन इसके बावजूद नक्सलवाद एक विचारधारा के तौर खुद को जिंदा रखा। आगे चलकर इस विचारधारा ने माओवादी विद्रोह की शक्ल अख्तियार कर ली, जिसे आज भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। इसकी वजह नक्सिलयों की ओर से की जाने वाली हिंसा बताई जाती है। पर राज्य की ओर से जो हिंसा होती है, उसका क्या? राज्य की हिंसा में जब हजारों बेगुनाह मौत की आगोश में चले जाते हैं उनका क्या? कही इसका मतलब यह तो नहीं राज्य को कानूनी तौर पर हत्या का अधिकार मिल गया है?
खैर, इस दौरान बहुत जल्द संन्याल अपने जुझारू और फायरब्रांड राजनीति के लिए पहचाने जाने लगे। फिर 1967 में उन्होंने उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में सशस्त्र किसान आंदोलन नेतृत्व किया। शुरु में यह सशस्त्र वामपंथी संघर्ष सरकार के विरुद्ध थी, लेकिन धीरे-धीरे इसकी लपटें आंध्रप्रदेश और उड़ीसा जैसे दूसरे राज्यों में भी फैलने लगी। दरअसल उस दौरान मई 1967 में दार्जलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव में जमींदारों के अत्याचार और दमन के खिलाफ सशस्त्र किसानों का विद्रोह फूट पड़ा था। इस बगावत की अगुआई संन्याल और मजूमदार ने सक्रिय तौर पर की। यह आंदोलन किसानों के विद्रोह के तौर पर शुरु हुआ जो सामंती व्यवस्था खत्म करने की जिद ठाने बैठे थे। इस दौरान संन्याल और मजूमदार दोनों ने सशस्त्र विद्रोह का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि इसे सही भी ठहराया। जब प्रशासन आंख रहते हुए भी अंधा हो जाता है, सरकार कानों में रूई डालकर सो जाती है तो अक्सर ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं। हालांकि तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रॉय की अगुवाई वाली राज्य पुलिस ने क्रूरता से इस आंदोलन को कुचल दिया। लेकिन असंतुष्ट और हाशिए पर रहने वालों और वंचित तबके का गुस्सा बंगाल में ज्वालामुखी की तरह आग उगलता रहा। इस आग का गवाह बना 1960 का आखिरी और 1970 का शुरुआती दशक। जारी.......

5 comments:

  1. मार्क्स वाद का अंत इसी तरह से होना है....कानू सान्याल से अन्य वामपंथियों को सबक लेना चाहिये...

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  2. चंदन जी खुद कानू सान्याल यह मानने लगे थे कि नक्सलवाद दरासल आतंकवाद है और इस रास्ते किसी तरह की क्रांति या व्यवस्था परिवर्तन संभव नहीं है।

    कानू सान्याल का यह इंटर्व्यू पढें -
    http://www.raviwar.com/baatcheet/B7_kanu-sanyal-interview-alokputul.shtml

    कानू सान्याल को श्रद्धांजलि।

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  3. बहुत पठनीय लेख है

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  4. rajiv bhai interview padha achchha laga, par unka yah interview aur jab unhone ne khjas maksad ke liye kranti ki shuruaat ki thi tab ke samaya me kafi fark hai....apne 75 ya 81 sal ki umra me unhone socha bhi nhai tha ki unka aandolan apne mool raste se bhatak jayega......isiliye vah vyathith the. nahi to halat kamobesh aaj bhi vahi hain badlav kuchh bhi nahi hua hai

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