मेट्रो में मोहब्बत का सफर-पार्ट टू

...डेढ़ आदमी के बैठने लायक जगह पर वे ढाई लोग एडजस्ट कर रहे थे। फिर भी वह सज्जन बार-बार एक पिता की तरह किसी तरह की दिक्कत न होने के बारे में पूछते, लड़की भी किसी तरह की दिक्कत न हो होने की बात ठीक उसी तरह बार-बार दोहराती जैसे कोर्ट में सुनवाई के दौरान गवाह अपनी बात पर डटा रहता है। दो स्टेशन के बाद राजकुमार टाइप और रिन या टाइड के ब्रांड एंबेस्डर से दिखने वाले सज्जन उतर गए तो वह जगह फिर से खाली हो गई। यानी एक आदमी अभी भी वहां आराम से बैठ सकता था। पर इस स्टेशन पर दो महिलाएं दाखिल हुई थीं। एक बात आपको इस दरम्यान बताना भूल ही गया कि वो जो तीन महापुरूष महिलाओं की सीट पर बैठे थे, उनमें से जिन्होंने पहले यह बात पूछी थी कि क्या यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है, दोबारा अपनी बात को कंफर्म किया। उन्हें इसबार जवाब मिला, हां। जवाब दिया उन्हीं राजकुमार टाइप वाले सज्जन ने। हालांकि यह अलग बात है कि उनके सामने कुछ महिलाएं खड़ी थीं और वह अपना यह स्वाभाविक ज्ञान बघार रहे थे। पर इसके बाद उन सज्जन ने अपनी बात दोबारा कंफर्म करने के बाद अपनी सीट महिलाओं के लिए खाली कर दी। ठीक उसी तरह जैसे विश्वामित्र ने अपना सिंहासन त्यागकर जंगल में संन्यास को कूच कर गए थे। विश्वामित्र को उनके परिजनों ने उनके इस साहसिक कदम के लिए बहुत रोका, मान-मनुहार किया था। फैसला बदलने के लिए उनके परिजनों ने भी काफी कोशिश की। पर विश्वामित्र नहीं माने, अपने फैसले पर अडिग रहे। भला वह कोई सांसद थोड़े ही थे, जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कभी इस पार्टी तो कभी उस पार्टी में मुंह मारे फिरते। आखिरकार वह ज्ञान की तलाश में चले ही गए। इसी तरह वह सज्जन अपनी बात कंफर्म होने के बाद अपनी उस सीट को खाली कर चुके थे, जो महिलाओं के लिए वैसे भी आरक्षित थी। बस उन्हें थोड़ी दुविधा हो गई थी, विश्वामित्र की तरह।
चलिए विश्वामित्र ने जब फैसला ले ही लिया था, फिर उस फैसले पर विचार करने का कोई मतलब ही नहीं बनता था, उससे तो विश्व का कल्याण ही हुआ। यहां विश्व का कल्याण तो नहीं, पर एक बुजुर्ग महिला को थोड़ी देर के लिए राहत जरूर मिल गई। थोड़ी देर के लिए इसलिए क्योंकि अगले स्टेशन पर वह उतर गईं। इसी स्टेशन पर ग्रामीण परिवेश वाली दो महिलाएं अपने बच्चों के साथ मेट्रों में दाखिल हुई। उस सीट पर बैठी गई, जिसकी अभी तक हम बातें करते आ रहे हैं। अब यहां भी एक समस्या आन पड़ी। जगह थी एक के लिए और महिलाएं थी दो। फिर वही जुगाड़ अपनाया गया, एडजस्ट करने का फंडा। उन दो महिलाओं में एक बैठ चुकी थी, दूसरी बैठने ही वाली थी, तभी एक आकाशवाणी तो नहीं उसे मेट्रोवाणी जरूर कह सकते हैं। उसी चेयर पर बैठे एक महापुरूष से दिखने वाले सज्जन ने कहा अरे इस पर कैसे बैठ पाओगी, जगह कहां है? उसके बाद तो उस महिला ने जो जवाब दिया उसे सुनकर मेरे जेहन में दो बाते आती हैं.... पहली बात तो यह कि यह आधुनिक महिला युग का सूत्रपात है या महिलाएं भी अब पुरूषों से कम नहीं। घर की चाहरदीवारी में पुरूषों के फैसलों को मानने को मजबूर रहने वाली महिलाएं उन्हें उनके फैसलों को चुनौती दे रही थीं। उन्हें ललकार रही थी कि अब तुम्हारा दौर गया, अपनी बकवास बंद करो और यदि तुम उनका सम्मान नहीं कर सकते तो उनके अधिकार पर अपना हाथ साफ भी नहीं कर सकते।

2 comments:

  1. आपकी दलील एकदम वाजिब मालूम होती है।

    ReplyDelete
  2. यदि तुम उनका सम्मान नहीं कर सकते तो उनके अधिकार पर अपना हाथ साफ भी नहीं कर सकते -बिल्कुल सही!!

    ReplyDelete