थ्री इडियट्स
तनहा दिल मेरा
नए को सलाम करता है हर दिल...
पर कुछ ऐसे भी हैं,
जिनकी कई यादें जुड़ी हैं,
पुराने साल से...
उसकी राहें, गलियां नए साल में भी
वही पुरानी यादें दिलाएंगी....
दिल कसमसा कर रह जाएगा
एकबार फिर...
फिर किसी की पहलू की तलाश में
खो जाएगा मेरा मन...
किसी अजनबी को पना बनाने की जद्दोजहद में
ग़ुम हो जाएगा ये तन्हा दिल...
दिन के उजाले में जब ये दिल
तनहा महसूस करता है...
रात के अंधेरों की तो बात करना भी बेमानी।
चाहत
चलो एक बार फिर जी लें हम साथ-साथ,
न कोई आशा न उम्मीद हो दफ़न दिल में
कभी खुश तो कभी ग़मी में जीना अब छोड़ दें।
चलो चाहत की इस दुनिया को
एक बार फिर से गुलज़ार किया जाए।
किसी मोहब्बत एक बार फिर किया जाए।
याद तो आती है गुज़रे पलों की
लेकिन ये पल भी अब हमारा नहीं रहा।
किसी की नज़रों ने इसे भी बेग़ाना बना दिया है।
चलो एक बार फिर सभी
चाहत की दुनिया में जी कर देख लें
यादें शेष रह जाती हैं
जब भीड़ में होता हूं, फिर भी तुम्हारी याद आती है,
क्या करूं तुम्हारे बग़ैर सिर्फ़ तुम्हारी ही याद आती है।
कोहरे की धुंध में कहीं खो गई वो यादें,
जो मुझे कभी परेशान किया करती थी,
यादें आती हैं, यादें जाती भी हैं,
पर ये भी सच है कि कुछ यादें,
दिलों में एक ज़ख्म छोड़ जाती हैं।
महसूस करता हूं तुम्हें हर पल
लम्हा दर लम्हा, ज़ख्म दर ज़ख्म,
एक टीस उठती है, ज़ुबां फिर ख़ामोश हो जाती है।
पर अब किया है फ़ैसला हमने,
छोड़ देंगे उन गलियों को, भूल जाएंगे हरेक लम्हे को
मुंह मोड़ लेंगे हर उस महफिल से,
जिससे जुड़ी हुई है तुम्हारी यादें।
कोई वजह नहीं, कोई कसक नहीं
वस यूं ही तय की है ज़िंदगी अपनी.
प्रधानमंत्री अमेरिका चले गए, कौन लेगा सुध!
ज़रा एक और बात पर नज़रे इनायत कीजिएगा। सबसे पहले अमेरिका में हुए नाइन इलेवन के हमले को याद कीजिए और उसके ठीक साल भर बाद मनाए जाने वाली बरसी को भी। अमेरिकी राष्ट्रपति उस हमले के बरसी के दिन कहां थे, क्या वो भारत, जापान, चीन या इज़रायल के दौरे पर थे। जी नहीं, वो किसी विदेशी दौरे पर नहीं थे। अमेरिकी राष्ट्रपति हमले में मारे गए लोगों को अपनी श्रद्धांजलि दे रहे थे, ठीक किसी आम अमेरिकी की तरह। उनसे यही अपेक्षा भी की जा रही थी। यही अमेरिकी राष्ट्रपति की संवेदनशीलता है या कहें कि अपने मुल्क के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी। लेकिन क्या आप यही आपने मुल्क यानी भारत के आंग्रेज़ी दां प्रधानमंत्री से यही उम्मीद कर सकते हैं, यदि हां तो यहीं आपकी उम्मीदों का चिराग हवा की झोंकों से बूझ जाएगा। मुमकिन हो हम या आप कुछ बहाना तलाश लें कि पीएम का अपना प्रोटोकॉल होता है, वो जो कर रहे हैं, देश की तरक्की और नीतियों के हिसाब ही कर रहे हैं। यदि हम यही सोचते हैं हम हमारी सोच को दोष नहीं दे सकते। हमारी सोच भी अंग्रेज़ियत के चश्मे में मिल गई है। लेकिन मैं परेशान हूं, हताश हूं और निराश भी। मैं संतुष्ट नहीं हूं। एक बेचैनी है। तड़प है। विपक्षी पार्टी बीजेपी हिंदुओं का ठेकेदार बन चुकी है तो तथाकथित समाजवादी पूंजीपतियों के इशारे के बग़ैर सर भी नहीं हिला सकते। आम आदमी अब आम नहीं रहा, तबाह हो गया। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने वाले हैं, इसी दौरान शीला दीक्षित को दिल्ली को शंघाई और पेरिस बनाने की सूझी। दिल्ली की ग़रीबी दूर करने की सूझी। ग़रीबी ख़त्म हो या न हो, पर ग़रीबों को ख़त्म करने का उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया है। बस किराया दोगुना हो चुका है, लोगों को दाल और आटा मिल नहीं रहा है, इसलिए सरकार ख़ुद इन्हें बेचने सड़कों पर उतर आई है। कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ, इसी नारे से चुनाव जीता कांग्रेस ने, पर वो हाथ भी अब शायद मैली हो गई। उससे इतनी बदबू आने लगी है कि आम आदमी का दम ही घुटने लगा है। फिर भी प्रधानमंत्री अमेरिका चले गए। हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री लोगों को उसके हाल पर छोड़ कर अमेरिका चले गए इसका ग़म नहीं है ग़म तो इस बात का है कि छब्बीस इलेवन के शहीदों की बरसी तक वो क्या नहीं क सकते थे, शायद नहीं तभी तो चले गए। बेहद ज़रूरी था। या सब नज़रों का धोखा।
अजब खेल के गज़ब खिलाड़ी
निराशा, हताशा या उदासी
प्रभाष जी चले गए और उनके साथ चला गया पत्रकार धर्म का एक अहम और बड़ हिस्सा। अब चंद लोग उनके खाली जगह को हथियाने और क़ब्ज़ा करने में लगे हैं। कोई हैरत नहीं वो कामयाब भी हो जाएंगे। लेकिन उनकी यह कामयाबी पत्रकारिता के लिए बड़ी नाकामयाबी साबित होगी। अभी ख़ुद मीडियाकर्मी चापलूसों और कामचोरों से घिरे हैं। उन्होंने अपने आसपास समर्थकों का एक ऐसा चक्रव्यूह बना लिया है कि जिसे भेदना आज के किसी भी अर्जुन के बूते की बात नहीं रह गई है। मैं यह नहीं कहता कि सब जगह निराशा, हताशा या उदासी घर कर गई है, और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। बेहतर भविष्य के लिए ज़रूरत है, हम ख़ुद को बेहतर बनाए। दूरों के दुख का उल्लास मनाने के बयाज ख़ुद के सुख पर हर्षित और उल्लासित हों.
वो ख़ुद ख़राब है
नाहक ख्याल करते हो दुनिया की बातों का,
जो तुम्हें ख़राब कहे, वो ख़ुद ख़राब है।
और मैं भी मानता हूं कि.
यह सोचते सोचते अब आदत सी हो गई है,
कि हर कोई कहता है ख़राब मुझे,
कल उसका एसएमएस आया था,
वो भी कह रही थी ख़राब मुझे।
जमाना चिट्ठी पत्री और तार से होते-होते
अब एसएमएस तक आ गया,
शायद इसीलिए ख़राब बनने का दौर भी
लोगों को है भा गया।
कल वायदा किया था मैंने उसे,
अबकी तुमसे मिलूंगा ज़रूर,
पर मेरा ये वायदा भी,
रहा हर वायदे की तरह।
अब उनसे कहां होती है मुलाक़ातें
न बातें, न वो जज्बात, न कोई ख्याल,
सब अधूरी छूट गई, उस मोड़ पर
जब आख़िरी बार देखा था उसे
दांतों में उंगली दबाए मुस्कुराते हुए,
न जाने कहां गई वो बातें, मुलाक़तें।
वक़्त बीतता गया, हम ठहर से गए
वो जमाने क साथ बढ़ती गई,
हम इंतज़ार करते रहे, सोचते रहे...
पार्टी चालीसा की
१ बीजेपी हुई बहरी, इसे बचाओ,
२ सपा (समाजवादी पार्टी) इसे मत सताओ
३ बसपा को पूरे देश में बसाइए, तभी कल्याण है।
४ तृणमूल कांग्रेस- तृण यानी घास यानी जड़ से जोड़े रखो,
५ जेडीयू- जल्द जनता से जुड़िए, बिहार उपचुनाव के नतीजों के बाद
६ राजद- लालू जी जनता की सेवा करते करते राजा बन गए अब राजशाही छोड़िए,
७ लोकजनशक्ति- नाम लोकजनशक्ति लेकिन नहीं इसके पास कोई शक्ति, अब करते रहिए पासवान जी भक्ति
८ वाम मोर्चा- अब वक़्त आ गया है मोर्चा लेने का,
९ मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) - मन से लग जाइए एक नए महाराष्ट्र के निर्माण में।
१० एनसीपी- कांग्रेस की पिछलग्गू
११ शिवसेना- ये वाक़ई शिव सैनिक हैं, ज़रा सावधान रहिएगा, मनसे के बाद इन्ही की बारी है।
१३ कांग्रेस- आजकल इनकी कारगुजारियों के तले ही तो दबी है, भारतीय जनता। कांग्रस की जय हो
पीएम की संवेदनशील चिट्ठी
बशीर बद्र ने बिल्कुल सही कहा है,
वो नहीं मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
उसे याद करे न दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया।
यही बात उस परिवार को भी याद रखनी चाहिए, क्योंकि पीएम साहब से उम्मीद बस उतनी ही है जितना बिल्ली के गले में घंटी बांधना। जिसकी कोई हिमाकत नहीं कर सकता। क्योंकि वह पीएम हैं। वह कह रहे हैं कि माफ़ी दीजिए तो समझ लीजिए मिल भी गई। वह कह रहे हैं, वह संवेदनशील हैं तो वाक़ई वह हैं.
मर्दों की मानसिकता
सबसे बड़ा मीडिया
लाल सलाम के क़त्लेआम की वजह
हाल में, छत्तीसगढ़ का दंतेवाड़ा ज़िला हो, या महाराष्ट्र का गढ़चिरौली इलाक़ा कत्लेआम का खेल यहां ख़ूब खेला गया. हम केवल इन्हीं इलाक़ों की बात क्यों करें, देखा जाए तो नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है, जहां नक्सलियों का तांडव सर चढ़ कर बोला रहा है. लोग इतने ख़ौफ़जदा हैं कि घर से निकलना भी उनके लिए जान गंवाने ले कम नहीं है. पुलिस प्रशासन पर नक्सलियों का क़हर इस क़दर आजकल टूट रहा है कि हर 10-15 दिन में कोई न कोई बड़ी वारदात सुनने को मिल ही जाती है, जिसमें पुलिस वाले थोक के भाव में मारे जा रहे हैं.
लाल सलाम को सलामी
हालांकि, एक बात तो तय है कि सरकारी नीति-निर्धारक तय नहीं कर पा रहे हैं, इस हालात के लिए कौन सी स्थितियां ज़िम्मेदार हैं. नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रही हैं, इसे समझना कतई मुश्किल नहीं है. आज देश के सात से भी अधिक राज्यों में नक्सली अपना क़हर बरपा रहे हैं. देश के क़रीब दर्जन भर राज्यों में इन माओवादियों ने सत्ता को खुलेआम चुनौती दे रखी है. चाहे वह छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडीसा, बिहार, बंगाल उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्य ही क्यों न हों. कुछ इलाक़ों या कहें कि कुछ राज्यों में में तो इनकी समानांतर सरकारें भी चल रही हैं तो कतई ग़लत न होगा. क्या यह बुरा होगा कि नक्सलवाद का मसला सुलझा लिया जाए. यह मसला सुलझ भी सकता है, लेकिन इससे नक्सलवाद पर चलने वाली कुछ लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगीं. ये कौन लोग हैं. कौन हैं, जो हर समस्या को उसके उसी रूप बरकरार रखना चाहते हैं. आख़िर, ये क्यों चाहते हैं कि समाज के हाशिए पर और विकास के नाम जो लोग पिछड़ गए हैं, उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले उनका ही ख़ून बहाए. जब तक इस सवाल को हम नहीं समझ लेते तब तक किसी भी समस्या की तरह नक्सलवाद को भी नहीं सुलझा सकते. चाहे सरकार कोई नीति बनाए, नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर सलवा जुड़ूम बनाए गए, लेकिन पिसता तो वही आम आदमी है. जिसकी आवाज़ देश के हुक्मरानों तक नहीं पहुंचती.
नक्सलवाद की राम कहानी
उनके सामने सब छोटे हो जाते.
जुबां ख़ामोश ही रखो अपनी
बरख़ुरदार हो जाओगे बर्बाद नहीं तो.
चारों ओर हा-हाकार मचा है, नक्सलवाद का.
पीएम, सीएम सब सर खपा रहे हैं
फिर भी कुछ हो नहीं पाता है.
सुबहो-शाम इसी मगन में रहते हैं,
कि कब कसेगा नकेल नक्सलवाद पर.
लाखों-करोड़ों के होटल में रहने वाले,
पॉलिसी बनाते हैं फकीरों की.
शहीद हो गया फ्रांसिस झारखंड में,
लड़ते-लड़ते नक्सलियों से,
नहीं मिली थी उसको लेकिन
सैलरी 6 महीने से.
कैसे कहते हैं हम लड़ पाएंगे
ऐसे नक्सलवाद से.
इसी विषमता के लिए लड़ रहे हैं नक्सलवादी,
पुलिस भी है शिकार उसी विषमता का.
फिर भी हो गया शहीद फ्रांसिस
करके नेताओं को आबाद. बनने लगी हैं फिर से नीतियां,
लड़ने नक्सलवाद से, देखें क्या-क्या होता है.
यह नकस्लवाद कितना बढ़ाता है.
क्योंकि, जब-जब होता हैं कुर्बान कोई
नेता करते हैं ऐलान कोई.
सुना दिया है फरमान इन्होंने,
नहीं करेंगे बर्दाश्त अब,
ऐसे नक्सलवाद को.
अमां मियां पहले करलो काम कोई.
जंपिंग जसवंत की राजनीतिक चाल
गांधी उपनाम का जलवा
लेकिन, इस गांधी उपनाम में भी ग़जब का जादू है। इसी उपनाम की बदौलत नेहरू वंशज भारत पर अभी तक शासन कर रहे हैं। यदि इसमें हक़ीक़त नहींहै तो क्यों फिरोज़ गांधी गुमनामी के अंधेरे में खो गए। बावजूद इसके कि वो भी एक राजनीतिक शख्स थे। लोकसभा के सांसद थे। लेकिन, उनका नामोनिशान सत्ता के गलियारे तक नहीं है। आख़िर, क्यों। इसकी सबसे बड़ी वजह यह भी हो सकती है, कांग्रेस पार्टी यह बख़ूबी जानती है कि या कहें कि नेहरू परिवार कि गांधी (महात्मा) के उपनाम के मोहजाल से इस देश की जनता का निकलना काफी मुश्किल है, जब तक यह देश भारत रहेगा, गांधी का जलवा बरकरार रहेगा। इसी का फंडा कांग्रेस अपना रही है।
बापू, तुम ऐसे क्यों थे !
ख़ैर, क्या आपने कभी सोचा है कि गांधी, गांधी क्यों थे। हो सकता है आपको ये थोड़ा अटपटा लगे। लेकिन इसमें बहुत बड़ा रहस्य छुपा हुआ है। वह भी आज के गांधी परिवार की। हमारे भविष्य के प्रधानमंत्री की। सबसे पहले आज का एक अजीब वाकया मैं आपको सुनाता हूं। आज मेरी मुलाक़ात एक ऐसे इंसान से हुई जिसे आप आम आदमी कह सकते हैं। मैंने गांधी जी की बात उनसे छेड़ दी। वह भी मेरे साथ न्यूज़ चैनल देखने में मशगूल थे। बापू की कुछ दुर्लभ तस्वीरें दिखाईं जा रही थीं, जो वाकई दुर्लभ थीं। मैं आश्चर्य कर रहा था कि कैसे एक इंसान बस एक धोती में अपनी ज़िंदगी गुजार सकता है। वह काम बापू ने किया। नेहरू की कांग्रेस पार्टी आज सादगी का खेल खेल रही है, लेकिन गांधी ने इसे दशकों तक जिया। (नेहरू की कांग्रेस पार्टी इसलिए क्योंकि गांधी उसे भंग कर जनता की सेवा में लगाना चाहते थे, पर नेहरू ने उसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का अचूक हथियार बना लिया.) कैसे कोई बस सच बोलकर इतनी बड़ी क्रांति कर सकता है। कैसे दूसरों पर बग़ैर हाथ उठाए ही उसे परास्त कर सकता है। जब देश आज़ादी की जश्न मना रहा हो तो, वह इंसान जिसने वाक़ई में आज़ादी दिलाई हो, वह तब भी लोगों के ज़ख्म भरने का काम कर रहा हो। (जब सारा देश और आज़ादी की लड़ाई के ज़्यादातर अगुवा आज़ादी की ख़ुशिया मना रहे थे, उस वक़्त बापू हिंदू-मुस्लिम दंगे रोकने में लगे थे, उनकी सेवा और लोगों की जान बचाने का काम कर रहे थे। उस भीषण दंगे ने बापू अंदर तक हिला दिया था, ऐसी आज़ादी की उम्मीद तो कतई नहीं चाह रहे थे। जबकि नेहरू सहित कई पुरोधा सत्ता की बंदरबांट में लगे थे ) इन्हीं सब ख़ूबियों की वजह से गांधीजी मुझे एक विचित्र और एक अद्भुत शक्ति नज़र आते हैं। जिसे समझन के लिए बेहद सरल और साधरण समझ की ज़रूरत है। जिसे आज हम भूलते जा रहे हैं।
हां, तो मैं बात कर रहा था उस विचित्र वाकये की। मुझे उन्होंने बताया कि गांधी जल्दी चले गए, मतलब गोडसे ने मार दिया अच्छा हुआ। नहीं तो देश का और कबाड़ा कर दिया होता। ये सोच आज के टुवाओं की है,। लेकिन सोचने वाली बात है कि यदि कुछ लोग भी ऐसा सोचते हैं तो आख़िर क्यों...क्या ये भी गोडसे मानसिकता वाले लोग हैं। या फिर अब के संघी मिजाज़ वाले...या कहीं ये कांग्रेसी तो नहीं, जो बस गांधी के नाम को भुना कर आज भी सत्ता की चाबी अपने पास ही रखना चाहते हैं। जब राहुल गांधी ये बयान देते हैं कि आज भी आम लोगों तक १० पैसा भी नहीं आम लोगों तक नहीं पहुंचता तो मुझे शक़ होता है कि कांग्रेसी भी वही कर रहे हैं, जो बाक़ी संघी या गोडसे मानसिकता वाले लोग कर रहे हैं।
अगले अंक में आपके बताएंगे कि कैसे नेहरू का परिवार गांधी परिवार बना...........क्यों...क्या थी कहानी....मजबूरी थी....या कोई और वजह.........
जब भारी पड़ा जूनियर पत्रकार
कास्त्रो की कहानी
सिक्सर किंग हुए आउट
कॉस्टकटिंग के कारनामें
दो ज़िदगी का अंतर
न्यूज़-चैनलों ने बर्बाद कर दिया मीडिया
दलालों की दुनिया है, मीडिया !
आप भी ख़बर बन सकते हैं !
एनडीटीवी इंडिया....चला इंडिया टीवी की राह !
कौन कहता है, आसमान में सुराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो, यारो ! एनडीटीवी वालों ने सही में पत्थर उछाला भी था, उनका मिजाज भी शायद दुरूस्त ही था, लेकिन एक ग़लती कर बैठे पत्थर किचड़ में दे मारा। फिर होना क्या था, इस हमाम में वह भी नंगे हो गए। कल तक पब्लिक और दूसरे चैनल वालों को सबक सिखा रहे थे, आज ख़ुद ककहरा भी भूल बैठे। क्या ज़रूरत थी लोगों को सीख देने की जब एक दिन वही सब करना था।हाल में, एनडीटीवी के कई पत्रकारों को अवार्ड मिला लेकिन शायद वे सारे अपनी झोली में बटोरना चाहते थे, रजत शर्मा से बेस्ट एंटरप्रेन्योर का अवार्ड भी छीनना चाहते थे। कोई बात नहीं यह मंशा भी अगले साल पूरी हो ही जाएगी। अब बात कीजिए उनके नए फॉरमेट की जिससे एनडीटीवी का कायाकल्प हुआ है...कभी ६-७ के बीच रहने वाली उनकी टीआरपी दो अंकों में पहुंच गई। कोई बुरी बात नहीं। बधाई हो। लेकिन कैसे ? कभी इंडिया टीवी को यू-ट्यूब चैनल कहते थे, शायद अभी भी। लेकिन यह चैनल भी अब अजब-ग़जब में फंस गया है। ख़बर बिना ब्रेक के रात नौ बजे ज़्यादातर पेज-थ्री की ख़बरें, फिलहाल तीन-चार दिनों से नहीं देख रहा एनडीटीवी तो बदलाव और भी मुमकिन है-पोजिटीव और निगेटिव भी। कभी स्पेशल रिपोर्ट जो कि जान थी वाकई स्पेशल हो चुकी है। मेरे एक मित्र ने बताया अब तो ब्रेकिंग न्यूज़ भी इस पर माशा-अल्ला आने लगे हैं- अगर ज़्यादा ज़रूरी न हो तो घर से न निकलें। ठीक है साहब नहीं निकलेंगे। अपने फेसबुक पर एकबार फिर रवीश कुमार ने आप सभी से राय मांगी है कि आप रात १० बजे किस तरह की ख़बरें देखना पसंद करते हैं, तो बता दीजिएगा मेरी तरफ से भी शायद उनकी अदालत में हमारी फरियादों की सुनवाई हो जाए।
एक बार फिर कहूंगा, कुछ ज़्यादा ही परेशान हो रहा हूं मैं एनडीटीवी इंडिया के लिए। क्या करूं आख़िर जिन्ना साहब मेरा पीछा भी तो नहीं छोड़ रहे। क़ायदे साहब रवीश के सपने में आए, मेरे सपने में भी आए और कहा उस रवीश को समझाते क्यों नहीं, कि जो शीशे के घरों में रहते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारते।
बदल रहा है.....एनडीटीवी----इंडिया.
मुझको डुबोया मेरे होने ने।
मंदी को भी मिलने लगी मात !
जिन्ना का जिन्न है ये जनाब !
कंगारूओं के क़िले में सेंध
अब कंगारूओं की टेस्ट रैंकिंग गिरकर चौथे पायदान पर आ गई है। अपना खोया रूतबा हासिल करना फिलहाल तो दूर की कौड़ी नज़र आ रही है, पोंटिंग एंड कंपना को। वजह साफ है, गेंदबाज़ी में न तो पहले जैसी धार है न ही फिल्डिंग में फुर्ती और न ही बल्लेबाज़ी में बादशाहत। मैक्ग्रा, शेन वार्न, गिलक्रिस्ट, हेडेन और लैंगर जैसे खिलाड़ियों के संन्यास के बाद मानो यह टीम बुरी तरह बिखड़ गई है।एक चैंपियन की हार का मलाल किसे नहीं होता, क्रिकेट का प्रशंसक होने के कारण कंगारूओं के क्रिकेट के खेलने के अंदाज़ का कायल बहुत सारे रहे होंगे, मैं भी था। लेकिन जब अपनी क़ाबिलियत को तराशने के बजाय उस पर कोई घमंड करने लगे तो उसका अंजाम भी क्या होता है, ऑस्टेलियाई क्रिकेट टीम हमारे सामने है।
बारिश की बोरियत का भी मज़ा है
ख़ान हर किसी के साथ सोए !
ये सारी बातें इमरान की बायोग्राफी में क्रिस्टोफर स्टैनफर्ड ने लिखी हैं। ध्यान देने वाली बात है कि इस तरह की बातें शायद पाक में किसी प्रधानमंत्री को लेकर पहली बार सामने आई है, वो भी एक मुस्लिम कंट्री में जहां लोकतांत्रिक क़ानूनों की जगह इस्लामी कानून का वर्चस्व बरकरार है और इस तरह की बातें सामने आने के बाद क्या बवाल खड़ा होता है, ये तो बस इंतजार करने और देखने वाली बात होगी। जहां कि उस दिवंगत प्रधानमंत्री बेनज़ीर का पति अभी राष्ट्रपति हैं और इमरान जो इस बात को ग़लत ठहरा रहे हैं, वो भी एक राजनीतिक तंजीम गठित कर पाक राजनीति में एक अहम किरदार निभा रहे हैं।
किताब के हवाले से स्टैनफोर्ड के मुताबिक़ 1975जब बेनज़ीर 21साल की थीं और ऑक्सफोर्ड में सेकेंड यीअर में पढ़ती थीं तभी वो इमरान के क़रीब आईं। बेनज़ीर जहां एक ख़ुले दिमाग और प्रोग्रेसिव सोच वाली महिला थीं जिसने अपनी ज़िदगी का अधिकतर वक़्त पश्चिमी मुल्कों में गुजारा और इमरान ने अपनी शादी इंग्लैंड में ही जेमिमा से की थी। मतलब की दोनों एक खुले विचारों वाले शख़्सियत। इस ख़ुलासे ने पूरे पाकिस्तान में तहलका मचा दिया है। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है य़ा बस कहीं पब्लिसिटी स्टंट तो नहीं, ये कहना ज़रा मुश्किल है क्योंकि बेनज़ीर अब स दुनिया में हैं नहीं और इमरान जिनकी बायोग्राफ़ी में इसका ख़ुलासा किया गया है, इस पूरी बात से इन्कार कर रहे हैं। लेकिन एक बात तो है कि इसने एक नए विवाद को जन्म दे दिया है, जो आने वाले समय में निश्चित ही एक नया गुल खिलागा। जो कभी दुनिया कि दूसरी पावरफुल महिला थी और पाक जैसे चरमपंथी सियासतदां मुल्क में एक महिला से जुड़ी इस बात का ख़ुलासा ही इस हवा को बवंडर की शक्ल देने को काफी।
ए कॉल टू जिन्ना
अब बात जसवंत सिंह को उनके कारनामे के लिए सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो चुका है। शायद एक मुख्य धारा की पार्टी में रहते हुए भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाने की उनकी कवायद रंग लाने लगी है। जी हां, उनको सम्मानित करने का फ़ैसला किया है, ऑल इंडिया मुसलिम मज़लिस ने। इसके उपाध्यक्ष यूसुफ हबीब औऱ प्रवक्ता बदरकाजमी ने कहा कि जसवंत सिंह ने वो काम किया है जिसे कांग्रेस हमेशा से अपमानित करती आई है। उनका कहना था कि जसवंत सिंह ने जिन्ना की एक सही तस्वीर पेश की जिसे कभी कोई हिंदुस्तानी समझ ही नहीं पाए...इस तरह की और तमाम बातें मुस्लिम मजलिस ने कही, जिसे दोहराना शायद मुनासिब नहीं क्योंकि बात फिर अपनी ही थाली में छेद करने वाली हो जाएगी।
लेकिन इन सब के बीच जो एक बात सोचने वाली है कि आखिर बीजेपी के ही नेता जिन्ना को महान और सेक्युलर बनाने पर क्यों तुले हुए हैं। और जब भी ऐसा होता है, पार्टी अपने को उससे अलग कर लेती है और व्यक्तिगत मसला बताकर किनारा कर लेती है। लेकिन सोचने वाली बात है कि बीजेपी में कैसे व्यक्ति हैं कि उन्हें अपनी बात कहने के लिए भी व्यक्तिगत होना पड़ता है, ख़ैर ये बात वो व्यक्ति नहीं कहता है कि ये मेरी व्यक्तिगत सोच है, जो सारा बखेड़ा खड़ा करता है।
अगर जसवंत सिंह जिन्होंने एक अलग ही इतिहास लिखने का काम किया है , यदि उनके इतिहास पर नज़र डालें, तो नेशनल डिफेंस अकादमी का एल्युमिनाई, जिसने देश की सेवा एक विदेश, वित्त और रक्षा मंत्री के तौर पर की। सबसे बड़ी बात ये कि जसवंत सिंह बीजेपी के भीतर सबसे प्रभावशाली शख़्सियत हैं जिनका बैकग्राउंड आरएसएस से नहीं है। हो सकता है शायद इसीलिए ऐसी हिमाकत की हो, जिन्ना को महान बताने की जबकि आडवाणी का हश्र वो देख चुके थे। अब इनका क्या होगा राम जाने। इसके पहले भी सुर्ख़ियों में आने के लिए जसवंत जी किताबें लिखते रहे है- ए कॉल टू ऑनर को कौन भूल सकता है, जब उन्होंने पीएम ऑफिस में जासूस होनी की बात कहकर सनसनीख़ेज ख़ुलासा किया था, जिसे वो कभी भी सच साबित नहीं कर सके। इस बार उन्होंने कोशिश नहीं बकायदा बताया है कि नेहरू और सरदार पटेल विभाजन के लिए कसूरवार थे और सारा दोष जिन्ना के उपर गढ़ दिया गया। साथ ही जिन्ना और गांधी के विचारों की समानता की भी बात की है। शायद उम्र की इस दहलीज पर कुछ करने को था नहीं, पार्टी पहले ही लुटपिट चुकी है, राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद भी हाथ से चला गया सो लगे जिन्ना का जिन्न बोतल से निकालने। अब होगा क्या , शायद रामजी अयोध्या से आकर कुछ करें तो बात बने।
और बात बन ही गई, जसवंत सिंह को आख़िरकार बीजेपी से चलता कर ही दिया गया। बड़े बेआबरू होकर पार्टी से निकलना पड़ रहा है।
जसवंत पर भारी जिन्ना का जिन्न
भूख है तो सब्र कर ।
हमें शर्म नहीं आती !
हाल ही में संसद में शिक्षा का अधिकार बिल पारित हो गया और पिछले दिनों मैं अपने घर गया...आप सोच रहे होंगे कि इसका इन सबसे क्या नाता, तो बस आपको कुछ तस्वीरें दिखाना चाहता हूं, और आप पर छोड़ता हूं बाक़ी चीज़ों के लिए।
ये सारी तस्वीरें पंद्रह अगस्त के दिन खींची गई हैं, कुछ नई दिल्ली- स्टेशन तो कुछ पटना की हैं। ये उन्हीं ट्रेनें में पानी, पराग और कई चीज़े बेचते हैं। जिस ट्रेन से बड़े-बड़े अफ्सर और कभी-कभी कुछ नेता भी सफर करते हैं, वो भी ये सारी चीज़ें देखते हैं, लेकिन उनकी भी मज़बूरी है, वो क्या करें कहां तक और किस-किस की प्रॉब्लम दूर करते रहें।
शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू हो जाएगा, क्या ये बच्चे उसे कभी पा सकेंगे, देश की मुख्य धारा में कभी शामिल हो भी सकेंगे, कोई आश्चर्य नहीं कल इसी में से कोई पॉकेटमार या उससे भी आगे कुछ और बन सकता है, आइएस बनने की गुंजाइश तो है नहीं....इनके ऐसे सुनहरे भविष्य के लिए क्या ज़िम्मेदार हम भी हैं, अगर जवाब आपके पास है तो , हमें भी बताइगा....
मीडिया की मृगमरीचिका
दूसरी बात ये कि सरकार अगर विज्ञापन देती है तो चुनावों के मौसम में क्योंकि उसे भी मालूम है कि कब चैनलों से अपना काम निकलवाना है। जिसे देख हमलोग हल्ला मचाने लगते हैं कि चैनल वाले पैसे लेकर किसी ख़ास पार्टी या कैंडीडेट की बातों को ख़बर के तौर पर दिखा रहे हैं। फिर वही बात आ जाती अपने-अपने हितों की, कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती कर ले तो खाएगा क्या ? कुल मिलाकर बात ये कि हम बाज़ारवाद के युग में जी रहे हैं और बाज़ार सारी चीज़ें तय कर रही हैं। एकबार एक प्रतिष्ठित चैनल के मैंनेजिंग एडीटर ने एक बात कही कि आज हम बाज़ार की ताकत को नकार नहीं सकते और आप भी यदि अपने हिसाब से ख़बरें देखना चाहते हैं तो पैसा लगाइए, फिर हम किसानों की आत्महत्या दिखाएंगे, बुंदेलखंड की समस्या दिखाएंगे , भारत को दिखाएंगे बजाय इंडिया के। सबसे बड़ी बात ये दुनिया हमारी बनाई हुई दुनिया ही है, अगर हमें वही दिखाया जा रहा है जो हम देख रहे हैं या देखना चाहते हैं। उसी से उनकी टीआरपी बढ़ती या घटती है, जिससे विज्ञापन कम या अधिक का मिलना अमुक चैनल को तय होता है। इस सिस्टम को हमीं ने मज़बूत किया है, हमी को कुछ करना होगा। बस बारबार गाली देना और उसी टीवी को देखना हमारी फितरत में शामिल हो चुकी है, न्यूज़-प्रोग्राम देखना और उसी की फज़ीहत करना, ऐसा करने से बाज आना होगा,जिसे ख़ुद बदलना होगा। न कि कोई हमारी मदद करने आएगा।
कुछ यूं तय की अपनी ज़िंदगी, मैंने.........
कि बस न मिलेगा सुकुन मेरे रूह को
ऐसा एहसास था, पता नहीं क्यूं
शायद मैं क़ाबिल नहीं तुम्हारे....
तुम्हारे एहसास के लिए।
दिल की हर धड़कन के साथ तड़पता हूं,
हरपल एक कशिश को सीने से लगाए रहता हूं।
इबारत क्यों भला उस ख़ुदा की,
माना पनाह दी है, ज़िदगी तो नहीं,
गर ज़िंदगी दी तो मक़सद तो नहीं,